भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

युगवाणी / भुवनेश्वर सिंह 'भुवन'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हम करब प्रलय, हम करब प्रलय
हम रहए देब नहि आब जगतमे छन भरिओ विषकुभंक भय।
हम छी महान, छी गुण निधान
उरमे चिर जाग्रत स्वाभिमान,
मुखमे ज्वालामय प्रगति गान
गति रोकि सकै अछि नहि कृपाण,
अछि प्रकृति स्वयं सहचरी हमर, अन्तर्बलमय हम अभय, अजय।
शेषक फूत्कृति हुंकार हमर,
शंकित लखि लोचन बंक अमर,
भैरव हम, कांपथि यम थरथर,
क्रोधित लखि नाचथि शिवशंकर,
मुखरित घरघर डमरूक खर-स्वर, कणकण थिरकै अछि चेतनमय।
सब सावधान, सब सावधान,
जागल किसान, जागल किसान,
रहि सकए हीन नहि महाप्राण,
दानी कहिआ धरि लेत दान ?
 कए अन्न-अन्न व्याकुल, निरन्न रहि, करब आब नहि शक्तिक क्षय।
गौरवक गर्व-गढ़, ढाहि देब,
नहि क्षमा करब, प्रतिशोध लेब,
कानल छी कए कए गरल पान,
लखि हँसब ठठा क’ नव विधान,
लए चुटकीमे पीसब विभेदके, बाँचत केवल सदय हृदय।
देखत जग हमरो आन बान,
हम घुरा लेब चिर लुप्त मान
त्रिभुवनमे पसरत सुयश गान,
हम परम धर्म, हमही प्रमाण
गरजत, पद-दलितक दल, जीवित भए-उठा हाथ जय मंगलमय।
की कए सकैत अछि लघु, निर्बल,
देखत लोचन भरि स्वार्थी खल,
ठेहुन टेकत ‘तोजो’ ‘हिटलर’
बम बम हर हर, बम बम हर हर,
समताक शंख फूकि देब, छी प्रलयंकर, छी मृत्युंजय।