भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

युद्ध के बाद की शान्ति / अर्चना लार्क

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पृथ्वी सुबक रही थी
खून के धब्बे पछीटे जा रहे थे
न्याय व्यवस्था की चाल डगमग थी  
युद्ध के बीच शान्ति  खोजते हुए   
हम घर से घाट उतार दिए गए थे
 
वह वसन्त जिसमें सपने रंगीन दिखाई दिए थे  
बचा था सिर्फ़ स्याह रंग में
खून के धब्बे मिटाए जा चुके थे
पता नहीं क्या था
जिसकी क़ीमत चुकानी पड़ रही थी  
 
चुकाना महँगा पड़ा था
हर किसी की बोली लग रही थी
हर चीज़ की क़ीमत आँक दी गई थी
हम कुछ भी चुका नहीं पा रहे थे  
 
सपने में रोज़ एक बच्चा दिखता था
जो समुद्र के किनारे औंधे मुह पड़ा था
एक बच्चा खाने को कुछ माँग रहा था
तमाम बच्चे अपनों से मिलने के लिए
मिन्नतें कर रहे थे
उसे युद्ध के बाद की शान्ति कहा जाता था
 
दो खरगोश थे उनकी आँखें फूट गईं थीं

एक नौजवान अपनी बच्ची से कह रहा था
मुझ जैसी मत बनना
मज़बूत बनना मेरी बच्ची
 
यह वह वक़्त था
जब प्रेमियों ने धोखा देना सीख लिया था
खाप पंचायतें बढ़ती जा रही थीं
 
उस दिन दूरबैठे मेरी फ़ोटोग्राफ़ी को पुरस्कार मिला था
मेरी गिरफ़्तारी सुनिश्चित हो चुकी थी
मैंने कहा यह कोई सपना नहीं
मेरे होने  की क़ीमत है, जिसे मुझे चुकाना है ।