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युवक / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

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जाति-आशा-निशि-मंजु-मयंक;
कामना-लतिका-कुसुम-कलाप;
युवक है लोक-कालिमा-काल,
देश-कमनीय-कंठ-आलाप।
जगाता है नव-जीवन-ज्योति
राग-आरंजित जिसका गात;
लोक-लोचन का है जो ओक,
युवक है वह भव-भव्य-प्रभात।
सुमनता है जिसकी स्वर्गीय,
सफलता वसुधा-सिध्दि-विधान,
मिली जिसमें मोहकता दिव्य
युवक है वह महान उद्यान।
बने महिमा-मंडित अवनीप
दे जिसे स्व-मुकुट-मंडन-मान;
अचल है जिसकी अंतर्ज्योति,
युवक है वह महि-रत्न महान।
बहा वसुधा पर सुधा-प्रवाह,
बन सका जो मंडन भव शीश;
तिमिर में भरता है जो भूति,
युवक है वह राका-रजनीश।
ललित लय जिसकी है प्रलयाग्नि,
या परम-द्रवण-शील-नवनीत;
भरित है जिसमें विजयोल्लास,
युवक है वह स्वदेश-संगीत।
नरक जिससे बनता है स्वर्ग,
मरु महीतल नंदन-उद्यान;
कल्पतरु-सम कमनीय करील,
युवक है वह अनुभूत विधान।
प्रबल है जिसका हृदयोल्लास
उदधि-उत्तल-तरंग-समान;
पवि-पतन है जिसका विक्षोभ,
युवक है वह प्रचंड उत्थान।
दग्ध कर शिर पर पड़ उर वेध
दुर्जनों का करता है अंत;
भयंकर प्रलय-भानु, यम-दंड,
युवक है काल-सर्प-विष-दंत।
प्रलय-पावक का प्रबल प्रकोप,
अग्नि-गिरि का ज्वलंत उद्गार;
त्रिलोचन-अनल-वमन-रत-नेत्र,
युवक है मूर्तिमंत संहार।