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यूं गर्दिशों का क़र्ज़ सफ़र में अदा हुआ / ध्रुव गुप्त

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यूं गर्दिशों का क़र्ज़ सफ़र में अदा हुआ
भटका किए वहां पे जहां रास्ता हुआ

ग़ैरों के घर में मेरे कई ख़त अता हुए
तुमसे मिला तो मैं भी अजब बेपता हुआ

अख़बार देखके अभी अफ़सोस है जिन्हें
वो अपने घर में बंद थे जब हादसा हुआ

पहले कहां किसी से शिकायत रही मुझे
तुमपे मेरी उम्मीद थी, तुमसे गिला हुआ

माकूल ना हुई कभी दुनिया तो क्या कहें
मेरा लिखा हुआ कभी मुझ सा कहां हुआ

जो आसमां से फ़ैसले करता है हमारे
उसके वजूद का भी कहां फ़ैसला हुआ

हर रोज़ नए हादसे, हर दिन नई तलाश
हर रोज़ अपने क़द से मैं थोड़ा बड़ा हुआ