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ये ज़रा सा कुछ और एक दम-ए-बे-हिसाब / मनचंदा बानी

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ये ज़रा सा कुछ और एक दम-ए-बे-हिसाब सा कुछ
सर-ए-शाम सीने में हाँपता है सराब सा कुछ

वो चमक थी क्या जो पिघल गई है नवाह-ए-जाँ में
के ये आँख में क्या है शोला-ए-ज़ेर-ए-आब सा कुछ

कभी मेहर-बाँ आँख से परख उस को क्या है ये शय
हमें क्यूँ है सीने में इस सबब इज़्तिराब सा कुछ

वो फ़ज़ा न जाने सवाल करने के बाद क्या थी
के हिले तो थे लब मिला हो शायद जवाब सा कुछ

मेरे चार जानिब ये खिंच गई है क़नात कैसी
ये धुवाँ है ख़त्म-ए-सफ़र का या टूटे ख़्वाब सा कुछ

वो कहे ज़रा कुछ तो दिल को क्या क्या ख़लल सताए
के न जाने उस की है बात में क्या ख़राब सा कुछ

न ये ख़ाक का इज्तिनाब ही कोई रास्ता दे
न उड़ान भरने दे सर पे ये पेच-ओ-ताब सा कुछ

सर-ए-शरह-ओ-इज़हार जाने कैसी हवा चली है
बिखर गया है सुख़न सुख़न इंतिख़ाब सा कुछ

ये बहार-ए-बे-साख़्ता चली आई है कहाँ से
तन-ए-ज़र्द में खिल उठा है पीले गुलाब सा कुछ

अरे क्या बताएँ हवा-ए-इमकाँ के खेल क्या हैं
के दिलों में बनता है टूटता है हुबाब सा कुछ

कभी एक पल भी न साँस ली खुल के हम ने 'बानी'
रहा उम्र भर बसके जिस्म ओ जाँ में अज़ाब सा कुछ