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ये पुतला तल्ख़ियों की कोख का जाया नहीं है / पृथ्वी पाल रैणा

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ये अपने साथ कोई दर्द-ओ-ग़म लाया नहीं है
ये पुतला तल्ख़ियों की कोख का जाया नहीं है

ज़माने से बटोरे हैं तजुर्बे भी तो उसने
इसी मिट्टी का बुत है स्वर्ग से आया नहीं है
  
हमारे दर्द का अहसास कैसे हो किसी को
कभी हमने उसे चेहरे से झलकाया नहीं है

हमारा उम्र भर रिश्ता रहा  नाकामियों से
ख़ुदा से जो मिला हमने वो ठुकराया नहीं है

मैं भटका हूँ फ़रेबो- मक्र लेकिन फिर भी दिल में
हज़ारों गर्दिशों    के बाद   भी आया नहीं है

हमें मालूम तो था  हश्र  क्या होगा हमारा
उलझती डोर को हमने ही सुलझाया नहीं है

वो जिनके साथ मैंने उम्र भर रिश्ते निभाए
मेरा उनके लबों पर ज़िक्र तक आया नहीं है

ज़माने तेरी फितरत पर कहें क्या और हम अब
जो तेरी गोद  में बैठा  वो  घर  आया नहीं है

हमारे रंजो ग़म की फ़िक्र क्यों होगी उन्हें जब
कभी भी इश्क़ का उन पर जुनूँ छाया नहीं है

उफ़क़ पर लाल गोला जब हुआ सूरज तो डूबा
बिरह के गीत सुनने   लौट कर आया नहीं है

अब उनकी बेरुख़ी का बेवजह ही ज़िक्र क्यों हो
हमारा साथ जिनको उम्र भर भाया नहीं है

अलग अंदाज़ बेशक है हमारी गुफ़्तगू का
हमारी ज़ीस्त का दुःख दर्द सरमाया नहीं है

रहे लिखते हमेशा शौक़ की तहरीर ही हम
जो फिसला हाथ से लम्हा वो फिर आया नहीं है।