भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ये सोच के हम भीगे / कविता किरण

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

गर सारे परिंदों को पिंजरों में बसा लोगे
सहरा में समंदर का फ़िर किससे पता लोगे?

ये सोच के हम भीगे पहरों तक बारिश में
तुम अपनी छतरी में हमको भी बुला लोगे।

इज़हारे-मुहब्बत की कुछ और भी रस्में हैं
कब तक मेरे पाँवों के काँटे ही निकालोगे।

सूरज हो, रहो सूरज, सूरज न रहोगे ग़र
सजदे में सितारों के सर अपना झुका लोगे।

रूठों को मनाने में है देर लगे कितनी
दिल भी मिल जाएंगे ग़र हाथ मिला लोगे।

आसाँ हो जाएगी हर मुश्किल पल-भर में
गर अपने बुज़ुर्गों की तुम दिल से दुआ लोगे।