भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रचनावली / कुबेरदत्त

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

एक दिन आएगी
मेरी भी रचनावली,
एक दिन आएगी
एक सजी-धजी दुनिया—
मेरी रचनावलियों से बाहर ।

एक दिन
मिलेंगे मुझे भी
बड़े
और सबसे बड़े पुरस्कार
एक दिन पहनूँगा मैं भी
दुनिया के महँगे फूलों का हार
एक दिन
खिलेगा मेरे आँगन में, तमगों, रुपयों
सोने का हरसिंगार ।

तैयारी में लगा हूँ
भभका चालू है
औषध सब खदबद खदबद है...
बूँद-बूँद जोड़ता हूँ अर्क
चौपड़ पर चौपड़
रहा खेल
एक-एक चाल पर
होती कुरबान मेरी शतरंजी
सँभल-सँभल चलता हूँ चाल
सम्मोहनी घोड़ी
की ठोंकी हैं नई-नई नाल
चढ़-चढ़ जिस पर
न्यास और अकादमी और संस्थान
होंगे कुरबान
महकेगी मेरी कवितावली
एक दिन आएगी मेरी भी रचनावली ।