भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रसोई की पनाह / रति सक्सेना

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जब भी मेरा आसमान
मेरी हथेली में भिंच
चिपचिपाने लगता है
मेरा आसपास
अनजाना बन मंडराने लगता है
मैं भागती हूँ
रसोई की पनाह में
कट-कट कटती जाती हैं
लौकी, गाजर, भिंडियाँ
बिना किसी शिकायत के
फिर चढ़ जाती हैं आग पर
मेरी ऐवज
मैं फिर से तैयार हो जाती हूँ
परोसी जाने के लिए