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रह न गया जिसमें किञ्चित भी / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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(राग दुर्गा-ताल दीपचंदी)
 
रह न गया जिसमें किञ्चित भी, कहीं, कभी ममताका लेश।
प्राणि-पदार्थ-परिस्थिति देने लगे सभी समता-संदेश॥
रहा न जिसमें किसी वस्तु-स्थितिका किञ्चित-सा भी अभिमान।
अहंकारके पूर्ण विलयसे हु‌आ जिसे पर-तव-ज्ञान॥
रहता सदा जगतमें, करता काम सभी विधिके अनुसार।
पर कुछ भी करता न कभी वह, रहता निर्मल-निरहंकार॥
अभिनय करता यथायोग्य वह सुन्दर नाम-रूप-‌अनुहार।
पर रहता निर्लेप नित्य वह, राग-काम-विरहित, अविकार॥
द्वेष, क्रञेध, शोक, भय, चिन्ता, ईर्ष्या, मत्सर, हर्षामर्ष।
छू सकते न कभी उसको सब, हो अपकर्ष, भले उत्कर्ष॥
सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह, अस्तेय, अतुल सब विधि संतोष।
करुण-हृदय संतत, सेवा-रत, शुभ गुणमय जीवन निर्दोष॥
पर-दुखमें दुखिया-सा होकर यथासाध्य सेवा करता।
पर-सुखमें कर हर्ष प्रकट, अति अमित मोद मनमें भरता॥
सुखकी नहीं स्पृहा करता, होता न कभी दुखमें उद्विग्र।
द्वन्द्व-रहित वह रहता, निज निर्मल स्व-रूप चिन्मयमें मग्र॥
कभी न होता किसी जीवका उससे किञ्चित भी अपकार।
सदा सभीके हितमें रहती उसकी बुद्धि-विभूति उदार॥
पर होते आदर्श सभी उसके विशुद्ध सुन्दर व्यवहार।
जीवन्मुक्त वही अति पावन परम ज्ञान-विग्रह साकार॥
शम-दम, परहित-रति, ईश्वर-गुरु-सेवन उसके सहज सु-भाव।
पर-वैराग्य सहज शुचि रहता, नहीं भोगका किञ्चित चाव॥
नहीं त्याग में भी होता वह आग्रहवश कदापि अनुरक्त।
पूर्ण परात्पर सच्चिन्मय आनन्दरूप रहता अविभक्त॥
करता सहज रूपसे सारे सदाचार-संयुत शुभ कर्म।
नहीं छोड़ता किसी प्रलोभन-भयसे वह अपना सद्धर्म॥
पर रहता स्वरूपतः वह नित धर्माधर्म-रहित तवज्ञ।
नहीं समझ पाते, उसकी अन्तःस्थिति को बाहरसे अज्ञ॥