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रात आँख मूँद कर जगी (कविता) / राजेन्द्र प्रसाद सिंह

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रात आँख मूँद कर जगी है,
एक अनकही लगन लगी है,
मैं नयन बनूँ,
- पवन बनूँ,
गगन बनूँ,
कि क्या करूँ?

मुसकेंगे होंठ नहीं, खिँचेंगी न भौंहें,
-ऐसी मुश्किल!
चुपकी रह जाएंगी गर्वीली सौहें,
- कैसी मंजिल!
… जो निहारता रहे,… बने दर्पण,
… परसे; तो हो जाए परछाई,
… अपनाले, वही झील बनजाये;
साँस भाव-गन्ध में पगी है,
गन्ध नील रंग में रँगी है,
मैं नशा बनूँ;
-तृषा बनूँ,
- दिशा बनूँ,
की क्या करूँ?

सिहरन भी रूठेगी,घिरेंगे न सपने,
अब क्या होगा?
रागिनी शिराओं में लगेगी पनपने
- तब क्या होगा?
…भरमादे इसे -वह कुहासा हो,
… दहकादे -आतिशी तमाशा हो,
… घेर ले -वही सागर बन जाए;
चाँदनी बिछी ठगी-ठगी है,
आस पंख मारती खगी है,
मैं चँवर बनूँ,
-भँवर बनूँ,
-लहर बनूँ,
कि क्या करूँ?

मुँदी हुई पलकों में बेरूखी अजीब
या बहाना है?
जागती पुतलियों में चिंता की बात
याकि ताना है?
…जो अधीन हो --रहे विटप बनकर
… त्रासदे-अशुभ पंछी बन जाए,
ले जाये बहा - वह अंधेरा हो!
शायद मनुहार दिल्लगी है,
रात तो अभाव की सगी है,
मैं क्षुधा बनूँ,
- विधा बनूँ,
-सुधा बनूँ,
की क्या करुँ?