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रात और दिन / अज्ञेय

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     रात बीतती है
     घर के शान्त झुटपुटे कोने में-
     सब माँगें पंछी-सी डैनों में सिर खोंस
     जहाँ पर अपने ही में खो जाती हैं,

     तनी साँस भी स्वस्ति-भाव से
     आ जाती है सहज विलम्बित लय पर।
     दिन खुलता है
     बड़े शहर के शोर-भरे बीहड़ में बेकल दौड़ रहे

     उखड़े लोगों की भीड़ों में-
     मोड़-मोड़ पर जिन्हें इश्तहारों के रंग-बिरंगे कोड़े
     चलता रखते हैं रंगीन सनसनी की तलाश में।
     रात अकेले में झीनी-सी छाया एक खड़ी रहती है सिरहाने,

     कहती रहती है शब्द बिना :
     ‘‘तुम मेरे हो, मैं कहीं रहूँ, यह मेरा स्नेह कवच-सा तुम्हें ढके रहता है;
     मैं कुछी करूँ, मेरे कामों में हम दोनों की प्रतिश्रुतियों का स्पन्दन है,
     मैं कुछी कहूँ, मेरे अन्तस् में अगरु-धूम-सी

     मंगल-आशंसाएँ उठती रहती हैं अविराम
     तुम सोओ, जागो, कर्म करो, हो विरत,
     सर्वदा सब में मैं हूँ : तुम मेरी अग्नि-शिखा हो-

     यह देखो मेरी श्रद्धांजलि : यह एक साथ
     है उसे बचाती और सौंपती-
     और स्निग्ध उस की गरमाई से पुरती भी जाती है।
     दिन के जन-संकुल में
     भीड़पने की लहरों के अनवरत थपेड़े

     निर्मम दुहराते जाते हैं :
     ‘‘तुम अपने नहीं, पराये हो,
     हम चाहे जितना गले मिलें,
     चाहे जितना हम मुसकानों के बिछा पाँवड़े

     बरसाएँ स्वागत-पंखुड़ियाँ,
     तुम तुम हो-अजनबी एक, बेमेल, बिराने।
     माला के एक फूल की पंखुड़ियों के भीतर
     चिउँटा फूल-सेज पर सोये पर वह फूल नहीं है,

     गुँथा नहीं है माला में-
     वैसे ही तुम, अजनबी, पराये हो!’’
     सुनते थे रात और दिन मणियाँ हैं जीवन की माला की,
     पर कौन जौहरी इतने अनमिल मन के
     एक सूत्र में गूँथेगा?

ओसाका, 18 दिसम्बर, 1957