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रात को दिन और अँधेरे को ज़िया कहते रहो / सुरेश चन्द्र शौक़

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रात को दिन और अँधेरे को ज़िया कहते रहो

हुक्मरान—ए—वक़्त ने जो भी कहा कहते रहो


चढ़ता सूरज जो भी हो उसको करो झुक कर सलाम

आज इसको और कल उसको ख़ुदा कहते रहो


ज़हरे—क़ातिल भी हो तो उसको कहो आब—ए—हयात

बाद—ए—सरसर भी हो तो बाद—ए—सबा कहते रहो


जो दिखाए राह उसको राहज़न का नाम दो

जो करे गुमराह उसको रहनुमा कहते रहो


जो मिले दुख—दर्द वो सहते रहो चुपचाप और

अपनी बदहाली को मौला की रज़ा कहते रहो


ख़ाह वो भाये किसी को,ख़ाह गुज़रे नागवार

‘शौक़’! जो भी दिल कहे वो बरमला कहते रहो.


हुक़्मराने—वक़्त=पदाधिकारी; आबे—हयात=अमृत; बाद—ए—सरसर=झक्कड़; बाद—ए—सबा=पुरवा; राहज़न=लुटेरा; गुमराह=पथभ्रष्ट; नागवार=अप्रिय; बरमला=मुँहपर