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रात / मोहन कुमार डहेरिया

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गुजरी है अभी-अभी जो रात
शामिल नहीं उसमें मैं

कैसे कहूँ इस रात को रात
न तो शब्दों ने किया चन्द्रमा का राजतिलक
न सुनाई दी स्मृतियों की चमकीली फुसफुसाहट
रात ही थी या पहाड़ी अत्यन्त दुरूह
कि देखते ही होशो-हवाश खो बैठे चेतना के घोड़े

अब उमठ रहा अन्दर-ही-अन्दर
मलता बार-बार हाथ
एक थे राहुल सांकृत्यायन
घण्टों का था जिनके पास हिसाब
खर्राटों से सनी पर यह रात
कि होती गहरी वितृष्णा

ऐसी तो नहीं होती थीं मेरी रातें
कि गायब हो जाएँ किसी आदिवासी गाँव से स्याह अँधेरे में
जवान लड़कियों के झुण्ड-के-झुण्ड
और चड़चड़ाएँ न मेरे स्वप्नों के सूखे पत्ते
खुलती थी पँखड़ी-दर-पँखड़ी
असंख्य रंगों, संकेतों और ध्वनियों से भरी
जीवन की इस कर्कशता में भी बोझिल हो जातीं लेटते ही
जिनकी पलकें
कदाचित् न करें विश्वास
नींद में भी उठ कर चढ़ जाता था छत पर
निहारता पूरी सृष्टि
देख आता रात-बिरात, जैसे किसान
ठीक-ठीक तो खड़ी है ईख की फसल
हो सकता है किसी को लगे
मामूली-सी बात में उत्पन्न कर रहा हूँ पेचीदगी
रात ही थी गुजर गयी तो गुजर गयी
चींटी काटने जितना होगा उसका दुख
एकदम सही हैं वे
चींटियों की ही भाषा में कर रहा हूँ बातें
समझ सकती जिसे सिर्फ पृथ्वी

अब जबकि उदय हो रहा है सूर्य
निकल पड़े परिन्दे अपने-अपने काम-धन्धों पर
मैं निठल्ला-सा बैठा
क्या करूँ इस रात का
वेताल-सी लदी है जो पीठ पर।