भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

राष्ट्र की पुकार है / लाखन सिंह भदौरिया

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

राष्ट्र की पुकार है
(दो घनाक्षरियाँ)

राष्ट्र-भक्त जाने लगा, बोली प्रिया उस वक्त,
आज कहाँ जाने का विचार प्राणाधार है।
बोला बीर-जाना प्रिये राष्ट्र की सुरक्षा हेतु,
जिसके हितार्थ आज मचा हाहाकार है।
बोली तभी तरुणा वह आँखों में पानी भर,
प्राण धन मेरा भी तुम पर अधिकार है।
उत्तर मिला-रोको नहीं आज प्रिये जाने दो,
जाना जरूर मुझे राष्ट्र की पुकार है।

साहसी सुधीर सदा खेलता है संगर में,
पाकर पराजय अंग ढीले नहीं पड़ते।
घन चोट खाते हैं सहस्र बार हीरे किन्तु,
चोट के प्रभाववश, नीले नहीं पड़ते।
विपदा वियोग वज्र टूटते हैं बारबार,
वीर के कपोल किन्तु गीले नहीं पड़ते।
काले भुजंग फुफकार मारते परन्तु,
प्यारे प्राण देकर भी पीले नहीं पड़ते।