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रुक न / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

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रुक न बीच में राही, तेरी मंजिल थोड़ी दूर है।

1.
माना चरण थके तेरे औ’ रहा न कोई साथ है,
शशि भी छोड़ गया सँग केवल रही अँधेरी रात है।
किन्तु रात यह कितनी? कुछ ही घड़ी-लों की देर है,
सुन, तरु की डाली डाली से उठी प्रात की टेर है।
उतर रही वह उषा माँग में भर सुहाग-सिंदूर है।
रुक न बीच में राही, तेरी मंजिल थोड़ी दूर है॥

2.
शूल चुभे मग में पग में जो, ले धीमे से खींच तू,
रक्तधार से आने वालों के पथ को दे सींच तू।
देख न गहरे घाव पाँव के, ये तेरे वरदान हैं,
शूली पर चढ़ने वाले इंसान बने भगवान हैं।
मत पल भर भी सोच तनिक यह ‘दुनिया कितनी क्रूर है।’
रुक न बीच में राही, तेरी मंजिल थोड़ी दूर है॥

अगस्त, 1955