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रूपतारा स्टुडियो / विजय कुमार

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वे जो हुस्न और इश्क की दास्तानें थीं
जलवे थे अदाकारी के नग़मानिग़ारी के
ज़माने भर के सादा फ़लसफ़े और ड्रामाई डायलॉग
वे ज़मीन से आसमान तक उठीं आहें वे रूहानी जज़्बे
वे बलबले दिल की वे बेकरारियाँ
वे रसिया वे सौदागर वे ख़ुदफ़रेब वे मालिकान कारिन्दे वे कला के मज़दूर
एक उजाड़ देवालय उन स्वप्नगाथाओं का
अपने खो चुके तिलिस्म की अलामात को
समेटे उनीन्दा और उदास
वह अनुगूँजें अब नहीं हैंख़ि
और पड़ोस से उठीं ख़ुशहाल स्मृतिहीन शिखर रिहाइशी इमारतें
एक गुज़रे हुए दौर पर हँसती हुईं

एक ऊँचा-सा काला जादुई गेट
जिस पर अब नगरपालिका के कब्ज़े का नोटिस टँगा है
और प्रवेश वर्जित
मैं फिर भी नाहक दाख़िल होता हूँ एक गुमशुदा वक़्त में
जंग-आलूद चोर-दरवाज़ों से

कुछ पुराने पेड़ अहाते में
काई लगे कवेलू कुछ टूटे-गले हुए बोर्ड
दीवारें आख़िरी साँसें लेती हुईं
आर्क लैम्पों और आदमक़द तिड़के हुए उतरे आइनों के बीच

वहाँ दो-चार आवारा कुत्ते थे
जिनकी पनियल आँखों में मैंने देखा देर तक
बाहर गुमटी पर चाय बनाते उस छोकरे को पता नहीं
कि यहाँ दिलकश ख़्वाब बुने जाते थे
रोशनियाँ थीं इत्र में नहाई हुई
फिर घुप्प अन्धेरा था
रोशनी और तारीक़ी का चलता था यह इन्द्रजाल
चन्द मस्त कलन्दर नौजवान वे लाखों के चहेते
गले में स्कार्फ़ बान्धे हुए
वे कब के बूढ़े हुए मर खप गए
चन्द हसीन अदाकारा थीं
धुन्धले हो गए चेहरे उनके
वे गुमनाम हो गईं
खो गए उनके तराने

वह जो एक इतिहास है बिख़री चीज़ों का
दास्तानों और हवामहल का
उसे किस चीज़ से बदला जा सकता है अब
दरवाज़ों और पेड़ों और दीवारों और जंग खाए टूटे-गले हुए बोर्डों में
मैं एक प्रेत-समय की गैबी चाबियों को तलाशता हूँ
किन कुओं में बिला गईं वे सामूहिक स्मृतियाँ

ये सारे सपनों के कारख़ाने बन्द हुए
उन्हें पता न था कि अन्त उनका इस तरह से पीछा करेगा
हमें पता न था कि अन्त उनका इस तरह से पीछा करेगा

बाहर अब कुछ नहीं
बाहर केवल एक सड़क, रफ़्तार, ख़रीद-फरोख़्त, हंगामे
नई बनी दुकानों में बहता हुआ दो टूक समय
बाहर सड़क के छोर पर निर्वासित और मूक दादा साहेब फ़ालके
उनका बुत असंख्य चिड़ियों की बीट से ढका हआ

मैं चलता हूँ, रुक जाता हूँ
फिर चलता हूँ
फिर क़दम ठिठक जाते हैं
बहुत से गीतों, बहुत सारे क़िस्सों
अफ़वाहों, दन्तकथाओं, साँसों की गर्माहट
और सुरीली आवाज़ों को अपने भीतर ढोता
यूँ शायद ख़ुद से ही बातें करता जाता हूँ कुछ दूर

यह रास्ता सिर्फ़ यहाँ से गुज़र जाने के लिए नहीं बना था
देखता हूँ पल भर ग़ौर से उन सब को जिन्हें कहीं पहुँचने की जल्दी है
उनके लिये भूमिगत मार्गों और फ्लाइओवरों को बनने से मैं रोक नहीं सकता
बड़े-बड़े गोदाम मुझे डराते हैं
कहीं शरणस्थलियाँ नहीं हैं
कोई पुकारता नहीं अब हठात् किसी अज्ञात दिशा से
मैं फिर भी निकम्मों की तरह बटोरता हूँ कुछ दो समयों के बीच फँसा हुआ
फ़जूल भटकता हूँ बदहवास और फिरता हूँ दीवानों-सा
ढूँढता हुआ कुछ अपने से बाहर