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रू भी अक्स-ए-रू भी मैं / शान-उल-हक़ हक़्क़ी

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रू भी अक्स-ए-रू भी मैं
मैं भी मैं हूँ तू भी मैं

ख़ुद से बच कर जाऊँ कहाँ
हूँ गोया हर सू भी मैं

ले कर रूख़ पर इतने कलंक
लगता हूँ ख़ुश-रू भी मैं

शामिल-ए-मय पैमाना भर
पीता हूँ आँसू भी मैं

सदक़े मैं उन आँखों के
सीख गया जादू भी मैं

उस की बज़्म-ए-नाज़ से दूर
उस के हम-पहलू भी मैं

दीद से बे-परवा हो कर
शौक़ से बे-क़ाबू भी मै।

बैर ही रखता मुझ से सनम
होता गर हिन्दू भी मैं

वाए तिलिस्म-ए-नक़्श-ए-फ़रंग
भूल गया उर्दू भी मैं

क़ाएल ख़ुद भी हूँ ‘हक़्क़ी’
शाग़िल-ए-इल्ला-हू भी मैं