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रेज़ा-रेज़ा ही दौरे-ग़मे-हयात गुजर जाने दो / कबीर शुक्ला

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रेजा़-रेज़ा ही दौरे-ग़मे-हयात गुजर जाने दो।
यूँ आँसुओं में ही मेरी कुछ रात गुजर जाने दो।

यकींनन तख़रीब के बाद फ़स्ले-बहार आयेगी,
फिरहाल यह ज़ागुँजी बरसात गुजर जाने दो।

अफ़शा-ए-राज़ होगा कबा-ए-गर्दे-चश्म हटेगा,
ज़रा तुम ये तिलिस्मे-कायनात गुजर जाने दो।

हाँ मिन्नतों की तक़मील होगी, मंजिल मिलेगी,
क़रार के ये मुंतशिर ख़यालात गुजर जाने दो।

तुम वाक़िफ़ नहीं ज़रा भी यूरिशे-सरसर से,
पहले मुझे ऐ अहले-मशाफात गुजर जाने दो।

बैतुलहरम में देर है रफीकों पर अंधेर नहीं है,
पा-ए-ग़नी से पामाल ज़ज्बात गुजर जाने दो।

हुज़ूरे-ग़ैब में लुत्फो-करम-ओ-सुकून मिलेगा,
बस ये अह्दे-ग़म की बारात गुजर जाने दो।