भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रेत की लहरी बची हैं / शब्द के संचरण में / रामस्वरूप 'सिन्दूर'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

क्या नहीं मैंने किया
अपनी उदासी के लिये!
मूर्ति की जल विसर्जित
देवदासी के लिये!

प्रार्थना के फूल
ओझल हो गये हैं धार में,
गन्ध कितने पल रहेगी
श्वास के अधिकार में,
आज मन्दिर ही हुआ है घर
प्रवासी के लिये!

एक संगम-ज्वार
निर्झर-क्षण बहा कर ले गया,
आँसुओं के साथ
सागर-क्षण बहा कर ले गया,
रेत की लहरें बची हैं
पूर्णमासी के लिये!

भूमिगत बैराग्य मेरा
कल्पवासों में जिया,
अमृत तक मैंने
न अपनी तृप्ति को छूने दिया,
जाल ले कब-तक उड़े पंछी
निकासी के लिये!