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रोते-रोते कंठ-रोध है / अज्ञेय

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रोते-रोते कंठ-रोध है जब हो जाता,
उस विषन्न नीरव क्षण में ही
कहती गिरा तुम्हारी, स्नेही
शान्त भाव से-

'किस सुख में भूली हो, उन्मन?'
-जिस से तड़प उठा है जीवन,
निर्मम! वही भुलाता!
गाते-गाते हो जाता स्वर-भंग कभी तो

उस के कम्पन को इंगित कर,
मादक आँखों में क्रीड़ा भर
तुम कहते हो-
'गायन इतना मीठा क्यों है?'

उस में विकल व्यथा-पुट जो है,
प्रियतम? हाय, तभी तो!