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लाईट उठाने वाले / पूनम तुषामड़

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कड़कती सरदी में
शादी के जश्न में डूबे
बैंड-बाजे और ढ़ोल-ताशों के बीच
नाचते-गाते
खुशी मनाते
इस कदर मस्त
कि वे नहीं देख पाते-
किसी का दुःख
हर्षातिरेक में डूबे
धीरे-धीरे हैं आगे बढ़ते

किंतु, कोई है
जो इस बारात की
शान बढ़ाने की कवायद में
मीलों पैदल चलता है
कांधे पर उसके रखी है
चमकती -चौंधियाती
भारी-भरकम लाईट

यह बालक सजा-धजा नहीं है
न ही वह बाराती है
वह फटेहाल थका हुआ
ठंड और गरीबी का सताया
श्रम ही उसकी थाती है।

वह बारात का हिस्सा
नहीं बनना चाहता
भीड को चीर कर
आगे बढ़ना चाहता है
इस कोशिश में
कितनी ही बार
खाता है झिड़कियां
पिटने से बचता है कई बार

वह हांफता है कांपता है
उस भरी लाईट को
कई बारे कांधे से उतारता है
फिर उठाकर कांधे पर टिकाता है
इस तरह वह अपनी
थकान मिटाता है
पर उसकी हांफती छाती और
कांपती टांगों को
किसी ने देखा है?
महसूस किया है
उसकी पीड़ा को?

उसके लिए
इस कड़कती ठंड में
भारी-भरकम बोझ
उठाना जरूरी है
मानो जीवन उसके लिए
एक मजबूरी है।