भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

लिरिक नहीं, एक चीख़-गोत / तरुण

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैंने अपने मन के गुबार को
आँधी-अंधड़ों के बीच घहराती बिजली-गर्भित घनघटा-सा
बार-बार
हुमग-हुमग कर कहा
आकाश से,
दिशाओं से,
पृथ्वी से,
सृष्टि से!

पर मेरी वह आवाज़ चट्टानों से, क्षितिज से व शून्य से
टकरा कर वापस लौट आई!
और अन्ततः तुन्दिल लम्बोदर पवन उसे लील गया!
मैंने आँखें फाड़ कर किसी त्राणकर्ता की उत्सुकतापूर्ण
प्रतीक्षा की-
तो मेरी आँखों में धूल, मिर्च व अँधेरा भर दिया गया।
कि मेरी छटपटाती आँखें खामोशी में चुपचाप ऐसे डूब जायें-
जैसे कोई नंगा छोटा लावारिस बालक
गुर्राते समुद्र के पेट में!
और,
मेरी साँसों में, गीले थूहरों की बाड़ में लगायी गयी-
आग का दमघोट धुआँ यों भर दिया गया-
जैसे, भीमकाय ट्रक के टायर में
पैट्रोल पम्प की फ्री मशीनी हवा बर्स्ट होने के बिन्दु तक!
तो मैं घबरा कर, विवश हो, आँख मींच कर
अपने भीतर-भीतर-बहुत भीतर
बहुत गहरे-बहुत गहरे जा कर
यों चीखा-
जैसे फुल स्पीड पर कोई एक्सप्रेस गाड़ी
किसी लम्बोदरी, अँधेरी पहाड़ी टनल में से
(जिसकी दीवारें व छतें धुएं व धूल-पर्त से दबी पड़ी हों)
धड़ाधड़ खीचती-सी निकल जावे, भीषण फ़क-फ़क करती।
पर आह, वहाँ से भी मेरी आवाजें
नपुंसक प्रतिध्वनि बनकर
तुरन्त लौट आई
महीन अक्षरों से भरी कानून की भारी-मोटी किताबों
वाले संसार में।

पर क्या कोई भी न सुनेगा-बाहर?
कोई भी न सुनेगा-भीतर?
मेरी बात!
मरता क्या न करता!
तो फिर मैं

अपनी व्यथाएँ
अपनी चीखें
अपना धुआँ
अपने डंक
अपने में फुल भर कर जब जाऊँगा मृत्यु के द्वार के उस पार
छुटे-तीर की तरह
तो मैं अपनी दुर्बल टाँगों को बेतहाशा उछालता
काँटों, झाड़-झंखाड़ों की चिन्ता छोड़
इधर उधर, मृगछौने सा
ताबड़तोड़ भागता
मुक्ति का क्षण पूरा भोगता सा
दोनों हाथ पूरी तरह अनंत आकाश में बार-बार
झटके दे-देकर

ऊपर फेंकता
कानून के एरिया के बाहर-
आकाश में दरारें डालता, पूरा ज़ोर लगा कर चीखूँगा-
कि अरे सत्य और न्याय के निर्लज्ज देवता
तू कहाँ है?
जा, तू अपनी बनाई सृष्टि को जरा एक बार तो सँभाल-
जहाँ से मैं, बड़ी मुश्किल से भाग कर निकल कर आया हूँ
तीर सा छुट कर।
कुछ साफ़ साँस लेने।

पर, अरे जीवन के पार, मृत्यु के बाद, किसी का कोई कुछ
अस्तित्व होता है क्या?

अरे, मैं क्या बक गया!
चुप हो जा मेरे मन-
दो सिरे पर जलते सरकण्डे के बीच फँसे
कीट से मेरे असहाय, व्यग्र, संत्रस्त मन!

1976