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लोकसत्ता / ‘हरिऔध’

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काम बनता निकाम सुन्दर क्यों।
कान्ति कमनीयता स्वयं खोती।
विधु लालता ललाम होने को।
जो न प्रभु की ललामता होती।1।

मोहती तरु हरीतिमा कैसे पाते।
क्यों गगन नीलिमा लुभा लेती।
मंजु तम श्यामघन न बन पाते।
श्याम रुचि जो न श्यामता देती।2।

क्यों विभाकर बिभा बलित बनता।
दामिनी क्यों चमक-दमक पाती।
तारकावलि न जगमगा सकती।
जागती ज्योति जो न जग जाती।3।

तो न होती ललित नवल-लतिका।
तो न बनती कलित कुसुम क्यारी।
तो न सरसिज सुहावने लगते।
जो छिटकती नहीं छटा न्यारी।4।

खग रुचिर पंख, तितलियों का तनु।
इन्द्रधानु रंग किस तरह लाता।
है जगत रंग में रँगा जिसके।
यदि वही रंगतें न दिखलाता।5।

चारुता दे सुचारु चन्दन सी।
किस तरह दारु दारुता खोती।
जो न मिलती सुरभि सुरभि-खनि से।
सौरभित क्यों मलय-पवन होती ।6।

माधुरी की न माधुरी रहती।
हो न सकता मधुर-मधुप कलरव।
माधवी मधुरिमा न जो होती।
मधु न पाते कदापि मधु माधव।7।

सुधा सदाकर किसी सुधा-निधि की।
जो सुधा में प्रकृति नहीं सनती।
क्यों सुधाधार सरस सुधावता।
क्यों सुधामय वसुंधरा बनती।8।

तो न रहता रसिक जनों का रस।
मेघ रस किस तरह बरस पाता।
जो न होता सकल रसों का रस।
तो सरस क्यों सरस कहा जाता।9।

कह सके बुधा जिसे 'रसो वै स:'।
जो न उनकी रसालता होती।
तो रसोपल न रस उपल बनते।
निज सरसता सकल रसा खोती।10।