भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

लोगो ने आकाश से ऊँचा जा कर तमग़े पाए / हुसैन माजिद

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

लोगो ने आकाश से ऊँचा जा कर तमग़े पाए
हम ने अपना अंतर खोजा दीवाने कहलाए

कैसे सपने किस की आशा कब से हैं मेहमान बने
तन्हाई के सून आँगन में यादों के साए

आँखों में जो आज किसी के बदली बन के झूम उठी है
क्या अच्छा हो ऐसी बरसे सब जल-थल हो जाए

धूल बने ये बात अलग है वरना इक दिन होते थे
चंदा के म संघी साथी तारों के हम-साए

आने वाले इक पल को मैं कैसे बतला पाऊँगा
आशा कब से दूर खड़ी हैं बाहों को फैलाए

चाँद और सूरज दोनों आशिक़ धरती किस का मान रखे
एक चाँदनी के गहनें फेंके एक सोना बिखराए

कहने की तो बात नहीं लेकिन कहनी पड़ती है
दिल की नगरी में मत जाना जो जाए पछताए

‘माजिद’ हम ने इस जुग से बस दो ही चीज़ें माँगी हैं
ऊषा सा इक सुंदर चेहरा दो नैनाँ शरमाए