भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

लोग ख़ुश हैं और हमको ज़ात का ग़म हो रहा है / ‘शुजाअ’ खावर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


लोग खुश हैं और हमको ज़ात का ग़म हो रहा है
दिन-ब-दिन दुनिया से अपना राबता कम हो रहा है

वो समझ ले जो समझ सकता है हम फिर कह रहे हैं
कर्बला में आजकल जश्ने-मुहर्रम हो रहा है

इस तरफ हालात के हरबे बराबर बढ़ रहे हैं
उस तरफ यादों का दस्ता फिर मुनज्ज़म हो रहा है

हम बज़ोमे-ख़ुद बहुत बरहम ज़माने से हैं लेकिन
लोग कहते हैं ज़माना हमसे बरहम हो रहा है

जाने कब बदलेगा ये मंज़र जहाने-आरज़ू का
हादसा होने से पहले इतना मातम हो रहा है