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वक़्त की मसाफ़त से कब निजात पाता हूँ / ज़ाहिद अबरोल

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वक़्त की मसाफ़त से, कब निजात पाता हूं
ज़िन्दगी का पहिया हूं, घूमता ही जाता हूं

मैं भी कितना पागल हूं, लुट के दिल के हाथों से
फिर उसी की ज़द में ही, ख़ुद को छोड़ आता हूं

ग़मज़दः ज़माने का, कुछ तो मुझ पे है एहसान
जब भी इस को तकता हूं, ख़ुद को भूल जाता हूं

दूसरों की सुनता हूं, ख़ुद को इक तरफ़ रख कर
अपने दिल पे जो ग़ुज़रे, कब किसे सुनाता हूं

कौन आ के कहता है, मेरे शे‘र ऐ “ज़ाहिद”
गुनगुना के मैं जिनको, झूम झूम जाता हूं

शब्दार्थ
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