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वक्त की तक़ली पर ख़ुद से ही टांग लिया ख़ुद को / शोभना 'श्याम'

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वक्त की तक़ली पर ख़ुद से ही टांग लिया ख़ुद को
रेशा रेशा रोज़ ज़िन्दगी काते है मुझको

इतनी काँपी भाग की ऊँगली हौंसला भी छूटा
फिसली तक़ली हाथ से धागा बार-बार टूटा
कैसे अनाड़ी हाथों में रब छोड़ दिया मुझको

चुकती जाती उम्र की पूनी हाथ न कुछ आया
एक पहरन बनने लायक सूत न कत पाया
फटी चदरिया ओढ़ उम्मीदें ताकें है मुझको

एक हठीली आस अभी तक वक़्त से लड़ती है
सधेगी तक़ली इक न इक दिन हर पल कहती है
एक इसी विश्वास पर फिर से जोड़ लिया ख़ुद को

रेशा रेशा रोज़ ज़िन्दगी काते है मुझको