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वधुके उठो / अज्ञेय

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वधुके, उठो!
रात्रि के अवसान की घनघोर तमिस्रता में, अनागता उषा की प्रतीक्षा की अवसादपूर्ण थकान में हम जाग रहे हैं, मैं और तुम!
हमारे प्रणय की रात- हमारे प्रणय की उत्तप्त वासना-ज्वाला में डूबी हुई रात- समाप्त हो चुकी है, और दिन नहीं हुआ।
हमें अभी दिन-लाभ नहीं हुआ। फिर भी उठो, उठ कर सामने देखो, और यात्रा के लिए प्रस्तुत हो जाओ!
क्योंकि हमारे उस आग्नेय रात्रि के स्मारक इन चिह्नों को, अपने मंगल वस्त्रों पर पड़े हुए धब्बों को, देख कर खिन्न होने का समय कहाँ है? - और प्रयोजन क्या?
वधुके, वह काम पीछे आने वालों पर छोड़ो, हमें तो आगामी रात तक की लम्बी यात्रा करनी है!
वधुके, उठो!
हमारी जलायी आग जल-जल कर रात ही में कहीं बुझ गयी है, और हम घोर अन्धकार के आवरण में उलझे हुए पड़े हैं- तुम और मैं!
किन्तु यह मत भूलो कि उषा अभी नहीं आयी है; कि आरक्त प्रभातकालीन अंशुमाली ने अभी तक वेदना के विस्तार को भस्म नहीं कर डाला!
वधुके, उठो और सामने के विस्तीर्ण नीलिम आकाश में आँखें खोलो! हम- तुम क्यों प्रत्यूष के तारे के साथ रोवें?

मुलतान जेल, 8 दिसम्बर, 1933