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वन-गंध / प्रेमशंकर शुक्ल

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भीतर भर रही है

वन-गंध

डालियाँ-टहनियाँ लहरा रही हैं ऎसे

जैसे हवा से

उनके रिश्ते का

एक महत्त्वपूर्ण जश्न हो


इस वन से गुज़रते

रह-रह कर आ रही है

तुम्हारी याद


वन-गंध के साथ

इसी वन से आनी थी

तुम्हारी महक भी

होना था एक-दूसरे को निहारते हुए

पर अफ़सोस!

चला जा रहा हूँ दूर

बहुत दूर!!