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वर्ष की अन्तिम कविता / दिनकर कुमार

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वर्ष की अन्तिम कविता
बुदबुदा रहा हूँ
बटोरना चाहता हूँ
कुछ दिलफ़रेब शब्द
चिपकाना चाहता हूँ
चेहरे पर एक प्रायोजित मुस्कान

ज़ख़्मों का हिसाब
आज की रात भूल जाना चाहता हूँ
भूल जाना चाहता हूँ--
प्याज की क़ीमत
किरासन की कालाबाज़ारी
ठण्डे चूल्हे की प्रार्थना
पाण्डुलिपियाँ कुतर रहे
चूहों को
भूल जाना चाहता हूँ
घिनौने खलनायकों के चेहरे
जी टी०वी० के परदे से लेकर
दीवारों के पोस्टरों में साल भर
बेहयाई के साथ
मुस्कराते रहे
देश को गेंद की तरह
उछालते-खेलते रहे

वर्ष की अन्तिम कविता में
दार्शनिकता घोलने की
कोशिश करता हूँ
शरणार्थी-शिविर में
भूखों मर गए हैं चौबीस बच्चे
सरकारी दफ़्तर में वेतन न मिलने पर
एक कर्मचारी ने
विषपान कर लिया है
कितने जवान सपने
मुठभेड़ों में मारे गए हैं
इन सब विवरणों को
काश ! भूल पाता
तो आपकी तरह
मुरदे जैसी ख़ामोशी ओढ़कर
चुप ही रहता ।