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वास्तविक अन्तिम उपलब्धि / हिमांशु पाण्डेय

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मैं चला था जिंदगी के रास्ते पर
मुझे सुख मिला ।

मैंने कहा," बड़ी गजब की चीज हो
आते हो तो छा जाते हो
जीवन में अमृत कण बरसाने लगते हो,
सूर्य का उगना दिखाते हो
झरनों का गिरना, नदियों की कलकल
और इतना आनंद की युगों युगों तक रहे जिसकी आस ।"

कुछ और आगे, आ मिला दुःख
उससे कहा, "बड़े निष्ठुर हो
जब हो रहे होते हैं हम सुख के अनुयायी
दिखा रहे होते हैं जीवन का विहंसित रूप
और जब होती है केवल प्रसन्नता ही प्रसन्नता
तुम आ खड़े होते हो,
तुम्हे नहीं परवाह मेरे सुखों की,
हे दुर्विनीत !
कैसा बैर साधते हो तुम?"
धीरे से सरक गया वह ।


मैं उन दोनों के बारे में सोचता आगे बढ़ा
तो आ मिला प्रेम ।

प्रेम से कहा, "तुम ही अच्छे हो ।
दिन हो या रात
दुःख की हो या फ़िर सुख की बात
रहते हो हमेशा हृदय के किसी कोने में लगातार..."

और प्रेम के साथ ही जीवन का अन्तिम सत्य
मेरे सम्मुख आ खड़ा हुआ
मेरी उपलब्धि मेरे सामने थी-
मृत्यु ।

न दुःख ।
न सुख ।
न प्रेम ।