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विचित्र / महेन्द्र भटनागर

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पृथ्वी का क्षेत्राफल
चाहे कितना भी हो,
हमें रहने को मिली है
यह कब्र जैसी
कोठरी !
जिसमें —
ज़िन्दा होने का
भ्रम होता है,
जिसमें —
ख़ुद को मुर्दा समझकर ही
बमुश्किल

जीया जा सकता है !
बरसाती रातों में
यह सोचना
कितना अद्भुत लगता है µ
मुर्दों की कब्रें
अच्छी हैं इससे
उनकी छतें तो नहीं टपकतीं ;
शव
धरती माँ की गोद में
आराम से तो सोते हैं !
हम तो गीले बिस्तर पर
रात भर जगते हैं,
तत्त्ववेत्ताओं जैसे
चुपचुप रोते हैं !