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विज्ञापन की औरत / अशोक तिवारी

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विज्ञापन की औरत

दुनिया के सारे साबुन
औरतों के लिए हैं
सारी की सारी जींसें और पतलून
सारे के सारे क़लम
और सारे के सारे जूते
वैसे ही जैसे-
सभी सिगरेट
सारे टूथपेस्ट
सारे ब्लेड
और दुनिया की सारी की सारी घड़ियाँ
उनके लिए बनी हों जैसे
सिर्फ़ उनके लिए
अजीब है ये कितना
खिलते हुए फूल के
असली रंग और महक तक
कितने हैं जो पहुँच पाते हैं
नहीं देखना चाहता है कोई असली चेहरा
विज्ञापन में दिखती हुई औरत का

उसके चेहरे पर ओढ़ी गई
मुस्कान के पीछे के असली मक़सद से
किसी को कोई मतलब नहीं
उसके हर झूठ को
उसके चहरे की मुस्कान से नाप लिए जाने का भ्रम
पाल लेता है हर कोई
उसी को मान लिया जाता है सच
पर सच ..
सच दूर-दूर तक कहीं नहीं होता
न तो उस प्रोडक्ट में
जिसके लिए वो हो जाती है
ज़रूरत से ज़्यादा परोसी हुई
और नहीं उस ख़ूबसूरत दिखती
औरत की मुस्कान में

सच उसके तन में नहीं
मन की खोह में बसा होता है कहीं
जिसे उसने ख़ुद कर दिया है दफ़न
अपनी ज़रूरतों के चलते

पैसे के बल पर
उसे लगता है
बंद सींखचों से हो रही है वो बाहर
ये उतना ही बड़ा झूठ है
जितना बड़ा ये सच कि
घटाटोप मौसम उसे भा गया है
विज्ञापन में दिखती औरत को
अब झूठ को
पैसे में तब्दील करना आ गया है!

25/05/2002