भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

विडंबना / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कंटकित हो क्यों कुसुमित सेज,
बने क्यों अकलित कुसुम-कलाप;
किसी की विलसित ललित उमंग
बने क्यों क्रंदन-बलित विलाप।
हरें क्यों अलकावलि का मान
किसी के पलित पुरातन केश;
मधुरतम-स्वर-लालायित-कान
सुने क्यों नीरस कंठ-निदेश।
दले क्यों कोई अमृदुल वृत्ति
किसी के कोमल कितने भाव;
रोक दे क्यों सुख-सरस-प्रवाह
मरुमहीतल-सम शुष्क स्वभाव।
जराजित, मोह-राहु-अभिभूत
रहे क्यों यौवन-मंजु-मयंक;
हरे क्यों नवला-हृदय-विनोद
किसी कंकाल भूत का अंक।
सुनाते हैं यम का संदेश
श्वेत हो-होकर जिसके बाल;
विवश को क्यों लेवे वह बाँधा
ग्रंथि-बंधान का बंधान डाल।
कुचल दे क्यों कुसुमायुध हीन
किसी की विकच कामना-बेलि;
करे क्यों युवती-सुख का लोप
किसी गत-यौवन-जन की केलि।
काल-बलि-भूत मिलिंद निमित्त
कमलिनी का क्यों हो बलिदान;
करे क्यों दलित कुसुम के हेतु
नवलतम कलिका जीवन-दान।
काठ उकठा क्यों हो उत्कंठ
वनज-सम विकसित वदन विलोक;
बने क्यों अतन-बाण से विध्द
गलित तन नूतन तन अवलोक।
गये जिसके रस-सोते सूख,
लालसा से क्यों हो वह लोल;
करे क्यों मदनमयी को दग्ध
काम-विरहित का काम-कलोल।
राग क्यों हो विराग-आधार,
रहे क्यों अनुरंजन से दूर;
बने क्यों किसी भाल का काल
असुंदर हो सुंदर सिंदूर।