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विसाल-घड़ियों में रेज़ा रेज़ा बिखर रहे हैं / हसन अब्बास रजा

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विसाल-घड़ियों में रेज़ा रेज़ा बिखर रहे हैं
ये कैसी रूत है ये किन अज़ाबों के सिलसिले हैं

मेरे ख़ुदा इज़्न हो की मोहर-ए-सुकूत तोड़ें
मेरे ख़ुदा अब तेरे तमाशाई थक चुके हैं

न जाने कितनी गुलाब-सुब्हें ख़िराज दे कर
रसन रसन घोर अमावसों में घिरे हुए हैं

सदाएँ देने लगी थीं हिजरत की अप्सराएँ
मगर मेरे पाँव धरती माँ ने पकड़ लिए हैं

यक़ीं कर लो की अब न पीछे क़दम हटेगा
ये आख़िरी हद थी और हम उस तक आ गए हैं