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विस्तार / पूनम भार्गव 'ज़ाकिर'

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सिमटे हैँ मुझमेँ सारे तरल
जिसक उथले गर्त में,
समाहित है तेरी उपेक्षा-अपेक्षा
शायद मेरी भी
विचलन यहीं खत्म नहीं होता
तीव्र हो जाता है
तीव्रतर उफानों में तुम
कह ही देते हो
इतना शोर तूफान हो
उफ़ अब
सहनशीलता पर प्रहार न कर दो
कभी ये न कह दो
क्या हिमखण्ड हो गई हो?
तब्दील हो जाती हूँ ज्वार-भाटों में
अचंभित तो मैं भी हूँ
अब कहीं
स्थिर होने की जुगत में
पैठ गई विषमताओं के साथ
भीतर छुपी सम्पदाओं को समेटे
इतना विस्तार न पा लूँ कि
तुझसे मुझे कभी ये कहना पड़े

समुन्दर हूँ अब नदी क्यों कहते हो?