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वीरवर सौमित्र / ‘हरिऔध’

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कर करवाल लिये रण-भू में निधारक जाना।
बिधा कर विशिखादिक से पग पीछे न हटाना।
लख कर रुधिर-प्रवाह और उत्तोजित होना।
रोम रोम छिद गये न दृढ़ता चित की खोना।
गिरते लख करके लोथ पर लोथ देख शिरका पतन।
नहिं विचलित होना अल्प भी हुआ देख शत-खंड-तन।1।

तोपों का लख अग्नि-काण्ड आकुल न दिखाना।
न काँपना लख शिर पर से गोलों का जाना।
भिड़ना मत्ता गयंद संग केहरि से लड़ना।
कर द्वारा अति क्रुध्द व्याल को दौड़ पकड़ना।
लख काल-वदन विकराल भी त्याग न देना धीरता।
अकेले भिड़ना भट विपुल से यद्यिप है बड़ी वीरता।2।

किन्तु वीरता उच्चकोटि की और कई हैं।
कथित वीरताओं से जो वर कही गयी हैं।
करना स्वार्थ-त्याग क्रोध से विजित न होना।
विपत-काल औ कठिन समय में धैर्य न खोना।
ऐसी ही कितनी और हैं द्वितीय भाँति की वीरता।
जिनमें न चाहिए विपुल बल और न वज्र-शरीरता।3।

रामानुज में द्विविध वीरता है दिखलाती।
समय समय पर जो चित को है बहुत लुभाती।
पति बन जाता देख सिया थी जब अकुलाई।
सुत-वियोग वश जब कौशल्या थी बिलखाई।
उस काल सुमित्रा-सुवन ने जो दिखलाया आत्मबल।
वह उनके कीर्ति-निकेत का कलित खंभ है अति अचल।4।

तजा उन्होंने राज-भवन-सुख सुर-उर-ग्राही।
तजी सुमित्रा-सदृश जननि सब भाँति सराही।
आह! न जिसका विरह कभी जन सम्मुख आया।
तजी उर्मिला जैसी परम सुशीला जाया।
पर बाल-प्रीति को डोर में बँधा भायपरँग में रँगे।
वह तज न सके प्रिय बन्धु को विपिन गये पीछे लगे।5।

यों उनका तिय-जननि-राज-सुख को तज जाना।
यती-भाव से बन में चौदह बरस बिताना।
राम-सिया को मान पिता, माता और स्वामी।
बन में सह दुख बिपुल बना रहना अनुगामी।
संसार चकित-कर कार्य है मिलित मनोरम धीरता।
है यही आत्म-बल-संभव परम अलौकिक वीरता।6।

कुसुम चयन करते अलकावलि बीच लगाते।
जब सीता सँग बिबिध-केलि-रत राम दिखाते।
उसी काल सौमित्र रुचिर उटजादि बनाते।
कर-तान करते मंजु शाल-शाखा दिखलाते।
सो किशलय पर जो यामिनी राम बिताते सुमुखि सह।
वह निशि व्यतीत करते लखन नखतावलि गिन सजग रह।7।

कभी जानकी पट-भूषण पेटिका लिये कर।
वे दिखला पड़ते चढ़ते गिरि दुरारोह पर।
लता, बेलि काटते, कटीले तरु छिनगाते।
सुपथ बनाते गहन विपिन में कभी दिखाते।
पथ कभी सिय-कुटी से सरसि तक का हित गगनागमन।
चिन्हित करते वे दीखते बाँधा पादपों में बसन।8।

यक तुषार से मलिन-चन्द्रिकावती रयन में।
जब वह थी गत-प्राय बड़ी सरदी थी बन में।
वे थे देख गये वारि सरसी में भरते।
सीकरमय तृण-राजि-बीच बचकर पग धरते।
यक जलद-मयी यामिनी में शिर पर जलधारादि ले।
चूती कुटीर के काज वे तृण, पत्ते लाते मिले।9।

यह अति कोमल राज-कुँवर कुवलय-करलालित।
सुवरन का-सा कान्ति-मान सुख में प्रति पालित।
कुसुम-सेज पर शयन-निपुण, मृदु-भूतल-चारी।
वर व्यंजन पर बसन वर विभव का अधिकारी।
जब कानन में था दीखना करते परम कठोर व्रत।
तब अवगत था जग को हुआ वह कितना है राम-रत।10।

कपि-दल लेकर राम जलधि-तट पर जब आये।
उसका देख कराल रूप कपि-पति अकुलाये।
सुन गर्जन र्आवत्ता सहित लख तुंग तरंगें।
हो विलीन सी गयी चमू की सकल उमंगें।
पर विचलित हुए न अल्प भी शूर-शिरोमणि श्री लखन।
कर धानु, शायक, लेकर कहे परम ओजमय ये वचन।11।

वही वीर है जो कर्तव्य-विमूढ़ न होवे।
कार्य-कला को जो नहिं बन आकुल चित खोवे।
क्या है यह जलराशि कहो शर मार सुखाऊँ।
या कर इसे प्रभाव-हीन घट तुल्य बनाऊँ।
पर मर्यादा का तोड़ना कभी नहीं होता उचित।
इसलिए करो सुजतन, विवश हो करके न बनो दुचित।12।

इसी सुमित्रा-सुवन-कथन का सुफल हुआ यह।
जो बारिधि था अगम गया गिरि से बाँधा वह।
उस पर से ही उतर पार सेना सब आई।
फिर लंका पर धूम धाम से हुई चढ़ाई।
रण छिड़ जाने पर लखन ने जो दिखलाया विपुल बल।
वह अकथनीय है अगम है बीर-बृन्द में है बिरल।13।

सुनकर धानु-टंकार मेदिनी थर्राती थी।
दिग्दंती की द्विगुण दलक उठती छाती थी।
विशिख-वृन्द से नभ-मण्डल था पूरित होता।
जो था दश दिशि बीच बहाता शोणित सोता।
प्रलय-बद्दि थी दहकती त्रिपुरान्तक थे कोपते।
जिस कला बीर सौमित्रा थे रणभू में पग रोपते।14।

अगर वृन्द जिसके भय से था थर थर कँपता।
जो प्रचंड पूषण सा था रण-भू में तपता।
पाहन द्वारा गठित हुई थी जिसकी काया।
बिबिध-भयंकरर-मूत्ति-मती थी जिसकी माया।
वह परम साहसी अति प्रबल मेघनाद सा रिपु-दमन।
जिसके कोपालन में जला धान्य वह सुमित्रा-सुवन।15।

वाल्मीकि मुनि-पुंगव ने बदनाम्बुज द्वारा।
चरित सुमित्रा-सुत का जो अति सरस उचारा।
वह नितान्त तेजोमय है अति ओज-भरा है।
एक राम-जीवन-मय है निरुपम सुथरा है।
निज रुचि-प्रियता-ममतादि का है न पता उसमें कहीं।
धाराएँ उसमें राम-हित जो शुचिता सँग हैं बहीं।16।

अकपट-चित से बन अनन्यमन रोप युगल पग।
वे करते अनुसरण राम का नीरवता सँग।
उसी काल यह मौन तपस्वी जीभ हिलाता।
जब रघुपति-हित-सुयश-मान पर संकट आता।
जग-जनित ताप उपशमन के लिए त्याग निजता गिला।
सौमित्र आत्मरति नीर था राम-प्रीति पय में मिला।17।

कुंठितमति पौरुष-विहीनता, परवशता से।
वे न सिया-पति अनुगत थे स्वारथ-परता से।
वरन हृदय में भ्रातृभक्ति उनके थी न्यारी।
जिसने थी मोहनी अपर भावों पर डारी।
उनके जीवन-हिम-गिरि-शिखर पर अमरावति से खसी।
राका-रजनी-चाँदनी सी स्नेह-वीरता थी लसी।18।

वे वासर थे परम मनोहर दिव्य दरसते।
जब थे भारत-मधय लखन से बंधु विलसते।
आज कलह, छल, कूट-कपट घर घर है फैला।
हृदय बंधु से बंधु का हुआ है अति मैला।
हे प्रभो! बंधु सौमित्र से फिर उपजें, गृह गृह लसें।
शुचि-चरित सुखी परिवार फिर भारत वसुधा में बसें।19।