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वैदेही वनवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / चतुर्दश सर्ग / पृष्ठ ४

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किसी काल में क्या ऐसा होगा नहीं।
क्या इतनी महती न बनेगी मनुजता॥
सदन-सदन जिससे बन जाये सुर-सदन।
क्या बुध-वृन्द न देंगे ऐसी विधि बता॥61॥

अति-पावन-बन्धन में जो विधि से बँधो।
क्यों उनमें न प्रतीति-प्रीति भरपूर हो॥
देवि आप मर्मज्ञ हैं बतायें मुझे।
क्यों दुर्भाव-दुरित दम्पति का दूर हो॥62॥

कहा जनकजा ने मैं विबुधो आपको।
क्या बतलाऊँ आप क्या नहीं जानतीं॥
यह उदारता, सहृदयता है आपकी।
जो स्वविषय-मर्मज्ञ मुझे हैं मानती॥63॥

देख प्रकृति की कुत्सित-कृतियों को दुखित।
मैं भी वैसी ही हूँ जैसी आप हैं॥
किसको रोमांचित करते हैं वे नहीं।
भव में भरे हुए जितने संताप हैं॥64॥

इस प्रकार के भी कतिपय-मतिमान हैं।
जो दुख में करते हैं सुख की कल्पना॥
अनहित में भी जो हित हैं अवलोकते।
औरों के कहने को कहकर जल्पना॥65॥

जो हो, पर परिताप किसे हैं छोड़ते।
है विडम्बना विधि की बड़ी-बलीयसी॥
चिन्तित विचलित बार-बार बहु आकुलित।
किसे नहीं करती प्रवृत्ति-पापीयसी॥66॥

विबुध-वृन्द ने क्या बतलाया है नहीं।
निगमागम में सब विभूतियाँ हैं भरी॥
किन्तु पड़ प्रकृति और परिस्थिति-लहर में।
कुमति-सरी में है डूबती सुमति-सरी॥67॥

सारे-मनोविकार हृदय के भाव सब।
इन्द्रिय के व्यापार आत्महित-भावना॥
सुख-लिप्सा गौरव-ममता मानस्पृहा।
स्वार्थ-सिध्दि-रुचि इष्ट-प्राप्ति की कामना॥68॥

वर नारी में हैं समान, अनुभूति भी-
इसीलिए प्राय: उनकी है एक सी॥
कब किसका कैसा होता परिणाम है।
क्या वश में है औ किसमें है बेबसी॥69॥

क्यों उलझी-बातें भी जाती हैं सुलझ।
कैसे कब जी में पड़ जाती गाँठ है॥
हरा-भरा कैसे रहता है हृदय-तरु।
कैसे मन बन जाता उकठा-काठ है॥70॥

कैसे अन्तस्तल-नभ में उठ प्रेम घन।
जीवन-दायक बनता है जीवन बरस॥
मेल-जोल तन क्यों होता निर्जीव है।
मनोमलिनता रूपी चपला को परस॥71॥

कैसे अमधुर कहलाता है मधुरतम।
कैसे असरस बन जाता है सरस-चित॥
क्यों अकलित लगता है सोने का सदन।
कुसुम-सेज कैसे होती है कंटकित॥72॥

अवगुण-तारक-चय-परिदर्शन के लिए।
क्यों मति बन जाती है नभतल-नीलिमा॥
जाती है प्रतिकूल-कालिमा से बदल।
क्यों अनुराग-रँगी-ऑंखों की लालिमा॥73॥

क्यों अप्रीति पा जाती है उसमें जगह।
जो उर-प्रीति-निकेतन था जाना गया॥
कैसे कटु बनता है वह मधुमय-वचन।
कर्ण-रसायन जिसको था माना गया॥74॥

जो होते यह बोध जानते मर्म सब।
दम्पति को अन्यथाचरण से प्रीति हो॥
तो यह है अति-मर्म-वेधिनी आपदा।
क्या विचित्र! दुर्नीति यदि भरित-भीति हो॥75॥

जो नर नारी एक सूत्र में बध्द हैं।
जिनका जीवन भर का प्रिय-सम्बन्ध है॥
जो समाज के सम्मुख सद्विधि से बँधो।
जिनका मिलन नियति का पूत-प्रबंधा है॥76॥

उन दोनों के हृदय न जो होवें मिले।
एक-दूसरे पर न अगर उत्सर्ग हो॥
सुख में दुख में जो हो प्रीति न एक सी।
स्वर्ग सा सुखद जो न युगल-संसर्ग हो॥77॥

तो इससे बढ़कर दुष्कृति है कौन सी।
पड़ेगा कलेजा सत्कृति को थामना॥
हुए सभ्यता-दुर्गति पशुता करों से।
होगी मानवता की अति-अवमानना॥78॥

प्रकृति-भिन्नता करती है प्रतिकूलता।
भ्रम, प्रमादि आदिक विहीन मन है नहीं॥
कहीं अज्ञता बहँक बनाती है विवश।
मति-मलीनता है विपत्ति ढाती कहीं॥79॥

है प्रवृत्ति नर नारी की त्रिगुणात्मिका।
सब में सत, रज, तम, सत्ता है सम नहीं॥
इनकी मात्र में होती है भिन्नता।
देश काल और पात्रा-भेद है कम नहीं॥80॥