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वैदेही वनवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / चतुर्दश सर्ग / पृष्ठ ८

इन्हीं पापमय कर्मों के अतिरेक से।
ध्वंस हुई कंचन-विरचित-लंकापुरी॥
जिससे कम्पित होते सदा सुरेश थे।
धूल में मिली प्रबल-शक्ति वह आसुरी॥141॥

प्राणी के अयथा-आहार-विहार से।
उसकी प्रकृति कुपित होकर जैसे उसे-
देती है बहु-दण्ड रुजादिक-रूप में।
वैसे ही सब कहते हैं जनपद जिसे॥142॥

वह चलकर प्रतिकूल नियति के नियमके।
भव-व्यापिनी प्रकृति के प्रबल-प्रकोप से॥
कभी नहीं बचता होता विध्वंस है।
वैसे ही जैसे तम दिनकर ओप से॥143॥

लंका की दुर्गति दाम्पत्य-विडम्बना।
मुझे आज भी करती रहती है व्यथित॥
हुए याद उसकी होता रोमांच है।
पर वह है प्राकृतिक-गूढ़ता से ग्रथित॥144॥

है अभिनन्दित नहीं सात्तिवकी-प्रकृति से।
है पति-पत्नी त्याग परम-निन्दित-क्रिया॥
मिले दो हृदय कैसे होवेंगे अलग।
अप्रिय-कर्म करेंगे कैसे प्रिय-प्रिया॥145॥

वास्तवता यह है, जब पतित-प्रवृत्तियाँ।
कुत्सित-लिप्सा दुव्यसनों से हो प्रबल॥
इन्द्रिय-लोलुपताओं के सहयोग से।
देती हैं सब-सात्तिवक भावों को कुचल॥146॥

तभी समिष होता विरोध आरंभ है।
जो दम्पति हृदयों में करता छेद है॥
जिससे जीवन हो जाता है विषमतम।
होता रहता पति-पत्नी विच्छेद है॥147॥

जिसमें होती है उच्छृंखलता भरी।
जो पामरता कटुता का आधार हो॥
जिसमें हो हिंसा प्रति-हिंसा अधमता।
जिसमें प्यार बना रहता व्यापार हो॥148॥

क्या वह जीवन क्या उसका आनन्द है।
क्या उसका सुख क्या उसका आमोद है॥
किन्तु प्रकृति भी तो है वैचित्रयों भरी।
मल-कीटक मल ही में पाता मोद है॥149॥

यह भौतिकता की है बड़ी विडम्बना।
इससे होता प्राणि-पुंज का है पतन॥
लंका से जनपद होते विध्वंस हैं।
मरु बन जाता है नन्दन सा दिव्य-वन॥150॥

उदारता से भरी सदाशयता-रता।
सद्भावों से भौतिकता की बाधिका॥
पुण्यमयी पावनता भरिता सद्व्रता।
आध्यात्मिकता ही है भव-हित-साधिका॥151॥

यदि भौतिकता है अति-स्वार्थ-परायणा।
आध्यात्मिकता आत्मत्याग की मूर्ति है॥
यदि भौतिकता है विलासिता से भरी।
आध्यात्मिकता सदाचारिता पूर्ति है॥152॥

यदि उसमें है पर-दुख-कातरता नहीं।
तो इसमें है करुणा सरस प्रवाहिता॥
यदि उसमें है तामस-वृत्ति अमा-समा।
तो इसकी है सत्प्रवृत्ति-राकासिता॥153॥

यदि भौतिकता दानवीय-सम्पत्ति है।
तो आध्यात्मिकता दैविक-सुविभूति है॥
यदि उसमें है नारकीय-कटु-कल्पना॥
तो इसमें स्वर्गीय-सरस-अनुभूति है॥154॥

यदि उमसें है लेश भी नहीं शील का।
तो इसका जन-सहानुभूति निजस्व है॥
यदि उसमें है भरी हुई उद्दंडता।
सहनशीलता तो इसका सर्वस्व है॥155॥

यदि वह है कृत्रिमता कल छल से भरी।
तो यह है सात्तिवकता-शुचिता-पूरिता॥
यदि उसमें दुर्गुण का ही अतिरेक है।
तो इसमें है दिव्य-गुणों की भूरिता॥156॥

यदि उसमें पशुता की प्रबल-प्रवृत्ति है।
तो इसमें मानवता की अभिव्यक्ति है॥
भौतिकता में यदि है जड़तावादिता।
आध्यात्मिकता मध्य चिन्मयी-शक्ति है॥157॥

भौतिकता है भव के भावों में भरी।
और प्रपंची पंचभूत भी हैं न कम॥
कहाँ किसी का कब छूटा इनसे गला।
किन्तु श्रेय-पथ अवलम्बन है श्रेष्ठतम॥158॥

नर-नारी निर्दोष हो सकेंगे नहीं।
भौतिकता उनमें भरती ही रहेगी॥
आपके सदृश मैं भी इससे व्यथित हूँ।
किन्तु यही मानवता-ममता कहेगी॥159॥

आध्यात्मिकता का प्रचार कर्तव्य है।
जिससे यथा-समय भव का हित हो सके॥
आप इसी पथ की पथिका हैं, विनय है।
पाँव आप का कभी न इस पथ में थके॥160॥

दोहा

विदा महि-सुता से हुई उन्हें मान महनीय।
सुन विज्ञानवती सरुचि कथन-परम-कमनीय॥161॥