भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वैदेही वनवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / चतुर्दश सर्ग / पृष्ठ ७

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सभी उलझनें सुलझायें हैं सुलझती।
गाँठ डालने पर पड़ जाती गाँठ है॥
रस के रखने से ही रस रह सका है।
हरा भरा कब होता उकठा-काठ है॥121॥

मर्यादा, कुल-शील, लोक-लज्जा तथा।
क्षमा, दया, सभ्यता, शिष्टता, सरलता॥
कटु को मधुर सरसतम असरस को बना।
हैं कठोर उर में भर देती तरलता॥122॥

मधुर-भाव से कोमल-तम-व्यवहार से।
पशु-पक्षी भी हो जाते अधीन हैं॥
अनहित हित बनते स्वकीय परकीय हैं।
क्यों न मिलेंगे दम्पति जो जलमीन हैं॥123॥

क्यों न दूर हो जाएगी मन मलिनता।
क्यों न निकल जाएगी कुल जी कीकसर॥
क्यों न गाँठ खुल जाएगी जी में पड़ी।
पड़े अगर दम्पति का दम्पति पर असर॥124॥

जिन दोनों का सबसे प्रिय-सम्बन्ध है।
जो दोनों हैं एक दूसरे से मिले॥
एक वृन्त के दो अति सुन्दर-सुमन-सम।
एक रंग में रँग जो दोनों हैं खिले॥125॥

ऐसा प्रिय-सम्बन्ध अल्प-अन्तर हुए।
भ्रम-प्रमाद में पड़े टूट पाता नहीं॥
स्नेहकरों से जो बन्धन है बँधा, वह-
खींच-तान कुछ हुए छूट जाता नहीं॥126॥

किन्तु रोग इन्द्रिय-लोलुपता का बढ़े।
पड़े आत्मसुख के प्रपंच में अधिकतर॥
होती है पशुता-प्रवृत्ति की प्रबलता।
जाती है उर में भौतिकता-भूति भर॥127॥

लंका में भौतिकता का साम्राज्य था।
था विवाह का बन्धन, किन्तु अप्रीतिकर॥
नित्य वहाँ होता स्वच्छन्द-विहार था।
था विलासिता नग्न-नृत्य ही रुचिर तर॥128॥

कलह कपट-व्यवहार कु-कौशल करों से।
बहु-सदनों के सुख जाते थे छिन वहाँ॥
होता रहता था साधारण बात से।
पति-पत्नी का परित्याग प्रति-दिन वहाँ॥129॥

अहंभाव दुर्भाव तथा दुर्वासना।
उसे तोड़ देती थी पतित-प्रवंचना॥
ऐंचा तानी हुई कि वह टूटा नहीं।
कच्चा धागा था विवाह-बन्धन बना॥130॥

उस अभागिनी की अशान्ति को क्याकहें।
जिसे शान्ति पति-परिवर्त्तन ने भी न दी॥
होती है वह विविध-यन्त्राणाओं भरी।
इसीलिए तृष्णा है वैतरणी नदी॥131॥

नरक ओर जाती थीं पर वे सोचतीं।
उन्हें लग गया स्वर्ग-लोक का है पता॥
दुराचार ही सदाचार था बन गया।
स्वतन्त्रता थी मिली तजे परतन्त्रता॥132॥

था बनाव-श्रृंगार उन्हें भाता बहुत।
तन को सज उनका मन था रौरव बना॥
उच्छृंखलता की थीं वे अति-प्रेमिका।
उसी में चरम-सुख की थी प्रिय-कल्पना॥133॥

इष्ट-प्राप्ति थी स्वार्थ-सिध्दि उनके लिए।
थी कदर्थना से पूरिता-परार्थता॥
पुण्य-कार्यों में थी बड़ी-विडम्बना।
पाप-कमाना थी जीवन-चरितार्थता॥134॥

बहु-वेशों में परिणत करती थी उन्हें।
पुरुषों को वश में करने की कामना॥
पापीयसी-प्रवृत्ति-पूर्ति के लिए वे।
करती थीं विकराल-काल का सामना॥135॥

थोड़ी भी परवाह कलंकों की न कर।
लगा कालिमा के मुँह में भी कालिमा॥
लालन कर लालसामयी-कुप्रवृत्ति का॥
वे रखती थीं अपने मुख की लालिमा॥136॥

इन्द्रिय-लोलुपता थी रग-रग में भरी।
था विलास का भाव हृदय-तल में जमा॥
रोमांचितकर उनकी पाप-प्रवृत्ति थी।
मनमानापन रोम-रोम में था रमा॥137॥

पुरुष भी इन्हीं रंगों में ही थे रँगे।
पर कठोरता की थी उनमें अधिकता॥
जो प्रवंचना में प्रवीण थीं रमणियाँ।
तो उनकी विधि-हीन-नीति थी बधिकता॥138॥

नहीं पाशविकता का ही आधिक्य था।
हिंसा, प्रति-हिंसा भी थी प्रबला बनी॥
प्राय: पापाचार-बाधाकों के लिए।
पापाचारी की उठती थी तर्जनी॥139॥

बने कलंकी कुल तो उनकी बला से।
लोक-लाज की परवा भी उनको न थी॥
जैसा राजा था वैसी ही प्रजा थी।
ईश्वर की भी भीति कभी उनको न थी॥140॥