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वैदेही वनवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / पंचदश सर्ग / पृष्ठ १

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पंचदश सर्ग : सुतवती सीता
छन्द : तिलोकी

परम-सरसता से प्रवाहिता सुरसरी।
कल-कल रव से कलित-कीर्ति थीं गा रही॥
किसी अलौकिक-कीर्तिमान-लोकेश की।
लहरें उठ थीं ललित-नृत्य दिखला रही॥1॥

अरुण-अरुणिमा उषा-रंगिणी-लालिमा॥
गगनांगण में खेल लोप हो चली थीं॥
रवि-किरणें अब थीं निज-कला दिखा रही।
जो प्राची के प्रिय-पलने में पली थीं॥2॥

सरल-बालिकायें सी कलिकायें-सकल।
खोल-खोल मुँह केलि दिखा खिल रही थीं॥
सरस-वायु-संचार हुए सब बेलियाँ।
विलस विलस बल खा खा कर हिल रही थीं॥3॥

समय कुसुम-कोमल प्रभात-शिशु को विहँस।
दिवस दिव्यतम-गोदी में था दे रहा॥
भोलेपन पर बन विमुग्ध उत्फुल्ल हो।
वह उसको था ललक-ललक कर ले रहा॥4॥

कहीं कान्ति-संकलित कहीं कल-केलिमय।
और कहीं सरिता-प्रवाह उच्छ्वसित था॥
खग कलरव आकलित कान्त-तरु पुंज से।
उसका सज्जित-कूल उल्लसित लसित था॥5॥

इसी कूल पर सीता सुअनों के सहित।
धीरे-धीरे पद-चालन कर रही थीं॥
उनके मन की बातें मृदुता साथ कह।
अन्तस्तल में वर-विनोद भर रही थीं॥6॥

सात बरस के दोनों सुत थे हो गए।
इसीलिए जिज्ञासा थी प्रबला हुई॥
माता से थे नाना-बातें पूछते।
यथावसर वे प्रश्न किया करते कई॥7॥

सरिता में थीं तरल-तरंगें उठ रहीं।
बार-बार अवलोक उन्हें कुश ने कहा॥
ए क्या हैं? ए किससे क्यों हैं खेलती।
मा इनमें है कैसे दीपक बल रहा॥8॥

सुने उक्तियाँ उनकी सत्यवती हँसी।
किन्तु प्यार से माँ ने ये बातें कहीं॥
ए हैं दुहितायें सरिता सुन्दरी की।
गोद में उसी की हैं क्रीड़ा कर रही॥9॥

जननी हैं सुरसरी, समीरण है जनक।
हुआ है इन्हीं दोनों से इनका सृजन॥
ए हैं परम-चंचला-सरसा-कोमला।
रवि-कर से है विलसित इनका तरल-तन॥10॥

जैसे सम्मुख से सारे-बालुका-कण।
चमक रहे हैं मिले दिवस-मणि की चमक॥
वैसे ही दिनकर की कान्ति-विभूति से।
दिव्य बने लहरें भी पाती हैं दमक॥11॥

तात तुमारे पिता का मनोरम-मुकुट।
रवि-कर से जैसा बनता है दिव्यतम॥
वह अमूल्य-मणि-मंजुलता-सर्वस्व है।
दृग-निमित्त है लोकोत्तर-आलोक सम॥12॥

यह सुन लव ने माता का अंचल पकड़।
कहा ठुनुक कर अम्मा हम लेंगे मुकुट॥
सीता ने सुत चिबुक थामकर यह कहा।
तात! तुमारे पिता तुम्हें देंगे मुकुट॥13॥

कुश बोले क्या हम न पा सकेंगे मुकुट।
सीता बोलीं तुम तो लव से हो बड़े॥
अत: मुकुट तुमको पहले ही मिलेगा।
दोनों में होंगे अनुपम-हीरे जड़े॥14॥

दोनों भ्राता शस्त्र-शास्त्र में निपुण हो।
अवध धाम में पहुँचोगे सानन्द जब॥
पाकर रविकुल-रवि से दिव सी दिव्यता।
रत्न-मुकुट-मण्डित होगे तुम लोग तब॥15॥

इसी समय कतिपय-चमकीली-मछलियाँ।
पुलिन-सलिल में तिरती दिखलाई पड़ीं॥
उन्हें देखने लगे लव किलक-किलक कर।
कुश की चंचल-ऑंखें भी उन पर अड़ीं॥16॥

उभय उन्हें देखते रहे कुछ काल तक।
फिर लव ने ललकित हो माँ से यह कहा॥
मैं लूँगा मछलियाँ क्या उन्हें पकड़ लूँ।
माँ बोलीं सुत यह अनुचित होगा महा॥17॥

जैसे तुम दोनों हो मेरे लाड़िले।
तुम्हें साथ ले जैसे मैं हूँ घूमती॥
गले लगाती हूँ तुमसे खेलती हूँ।
जैसे मैं हूँ तुम्हें प्यार से चूमती॥18॥

वैसे ही हो केलि-निरत मछलियाँ भी।
हैं बच्चों के सहित सलिल में विलसती॥
देखो तो कैसा हिल मिल हैं खेलती।
मिला-मिला कर मुँह कैसी हैं सरसती॥19॥

यदि कोई तुमको मुझसे तुमसे मुझे।
छीने तो बतला दो क्या होगी दशा॥
कोमल से कोमल बहु-व्याकुल-हृदय को।
क्या न लगेगी विषम-वेदना की कशा॥20॥