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वैदेही वनवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / तृतीय सर्ग / पृष्ठ ३

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किये पग-लेहन, हो, कर-बध्द।
कुजन का होता था प्रतिपाल॥
सुजन पर बिना किये अपराध।
बलायें दी जाती थीं डाल॥41॥

अधमता का उड़ता था केतु।
सदाशयता पाती थी शूल॥
सदाचारी की खिंचती खाल।
कदाचारी पर चढ़ते फूल॥42॥

राज्य में पूरित था आतंक।
गला कर्तन था प्रात:-कृत्य॥
काल बन होता था सर्वत्र।
प्रजा पीड़न का ताण्डव नृत्य॥43॥

केकयाधिप ने यह अवलोक।
शान्ति के नाना किये प्रयत्न॥
किन्तु वे असफल रहे सदैव।
लुटे उनके भी अनुपम-रत्न॥44॥

इसलिए हुए वे बहुत क्रुध्द।
और पकड़ी कठोर तलवार॥
हुआ उसका भीषण परिणाम।
बहुत ही अधिक लोक संहार॥45॥

छिन गये राज्य हुए भयभीत।
बचे गंधर्वों का संस्थान॥
बन गया है पांचाल प्रदेश।
और यह अन्तर्वेद महान॥46॥

इस समर का संचालन सूत्र।
हाथ में मेरे था अतएव॥
आप से उसका बहु सम्पर्क।
मानता है उनका अहमेव॥47॥

अत: यह मेरा है सन्देह।
इस अमूलक जन-रव में गुप्त॥
हाथ उन सब का भी है क्योंकि।
कब हुई हिंसा-वृत्ति विलुप्त॥48॥

उचित है, है अत्यन्त पुनीत।
लोक आराधन की नृप-नीति॥
किन्तु है सदा उपेक्षा योग्य।
मलिन-मानस की मलिन प्रतीति॥49॥

भरा जिसमें है कुत्सित भाव।
द्वेष हिंसामय जो है उक्ति॥
मलिन करने को महती-कीर्ति।
गढ़ी जाती है जो बहु युक्ति॥50॥

वह अवांछित है, है दलनीय।
दण्डय है दुर्जन का दुर्वाद॥
सदा है उन्मूलन के योग्य।
अमौलिक सकल लोक अपवाद॥51॥

जो भली है, है भव हित पूर्ति।
लोक आराधन सात्तिवक नीति॥
तो बुरी है, है स्वयं विपत्ति।
लोक - अपवाद - प्रसूत - प्रतीति॥52॥

फैल कर जन-रव रूपी धूम।
करेगा कैसे उसको म्लान॥
गगन में भूतल में है व्याप्त।
कीर्ति जो राका-सिता समान॥53॥

छन्द : चौपदे

बड़े भ्राता की बातें सुन।
विलोका रघुकुल-तिलकानन॥
सुमित्रा सुत फिर यों बोले।
हो गया व्याकुल मेरा मन॥54॥

आपकी भी निन्दा होगी।
समझ मैं इसे नहीं पाता॥
खौलता है मेरा लोहू।
क्रोध से मैं हूँ भर जाता॥55॥

आह! वह सती पुनीता है।
देवियों सी जिसकी छाया॥
तेज जिसकी पावनता का।
नहीं पावक भी सह पाया॥56॥

हो सकेगी उसकी कुत्सा।
मैं इसे सोच नहीं सकता॥
खड़े हो गये रोंगटे हैं।
गात भी मेरा है कँपता॥57॥

यह जगत सदा रहा अंधा।
सत्य को कब इसने देखा॥
खींचता ही वह रहता है।
लांछना की कुत्सित रेखा॥58॥

आपकी कुत्सा किसी तरह।
सहज ममता है सह पाती॥
पर सुने पूज्या की निन्दा।
आग तन में है लग जाती॥59॥

सँभल कर वे मुँह को खोलें।
राज्य में है जिनको बसना।
चाहता है यह मेरा जी।
रजक की खिंचवा लूँ रसना॥60॥