भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वैदेही वनवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / त्रयोदश सर्ग / पृष्ठ ३

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आह! दूसरे दिवस सुना जो आपने।
किसका नहीं कलेजा उसको सुन छिला॥
कैकेई-सुत-राज्य पा गये राम को।
कानन-वास चतुर्दश-वत्सर का मिला॥41॥

कहाँ किस समय ऐसी दुर्घटना हुई।
कहते हैं इतिहास कलेजा थामकर॥
वृथा कलंकित कैकेई की मति हुई।
कहते हैं अब भी सब इसको आह भर॥42॥

आपने दिखाया सतीत्व जो उस समय।
वह भी है लोकोत्तर, अद्भुत है महा॥
चौदह सालों तक वन में पति साथ रह।
किस कुल-बाला ने है इतना दुख सहा॥43॥

थीं सम्राट्-वधू धराधिपति की सुता।
ऋध्दि सिध्दि कर बाँधो सम्मुख थी खड़ी॥
सकल-विभव थे आनन सदा विलोकते।
रत्नराजि थी तलवों के नीचे पड़ी॥44॥

किन्तु आपने पल भर में सबको तजा।
प्राणनाथ के आनन को अवलोक कर॥
था यह प्रेम प्रतीक, पूततम-भाव का।
था यह त्याग अलौकिक, अनुपम चकित कर॥45॥

इस प्रवास वन-वास-काल का वह समय।
अति-कुत्सित था, हुई जब घृणिततम-क्रिया॥
जब आया था कंचन का मृग सामने।
रावण ने जब आपका हरण था किया॥46॥

लंका में जो हुई यातना आपकी।
छ महीने तक हुईं साँसतें जो वहाँ।
जीभ कहे तो कहे किस तरह से उसे।
उसमें उनके अनुभव का है बल कहाँ॥47॥

मूर्तिमती-दुर्गति-दानवी-प्रकोप से।
आपने वहाँ जितनी पीड़ायें सहीं॥
उन्हें देख आहें भरती थी आह भी।
कम्पित होती नरक-यंत्राणायें रहीं॥48॥

नीचाशयता की वे चरम-विवृत्ति थीं।
दुराचार की वे उत्कट-आवृत्ति थीं॥
रावण वज्र-हृदयता की थीं प्रक्रिया।
दानवता की वे दुर्दान्त-प्रवृत्ति थीं॥49॥

किन्तु हुआ पामरता का अवसान भी।
पापानल में स्वयं दग्ध पापी हुआ॥
ऑंच लगे कनकाभा परमोज्ज्वल बनी।
स्वाति-बिन्दु चातकी चारु-मुख में चुआ॥50॥

आपके परम-पावन-पुण्य-प्रभाव से।
महामना श्री भरत-सुकृति का बल मिले॥
फिर वे दिन आये जो बहु वांछित रहे।
जिन्हें लाभकर पुरजन पंकज से खिले॥51॥

हुआ राम का राज्य, लोक अभिरामता।
दर्शन देने लगी सब जगह दिव्य बन॥
सकल-जनपदों, नगरों, ग्रामादिकों में।
विमल-कीर्ति का गया मनोज्ञ वितान तन॥52॥

सब कुछ था पर एक लाल की लालसा।
लालायित थी ललकित चित को कर रही॥
मिले काल-अनुकूल गर्भ-धारण हुआ।
युगल उरों में वर विनोद धरा बही॥53॥

पति-इच्छा से वर-सुत-लाभ-प्रवृत्ति से।
अति-पुनीत-आश्रम में आयी आप हैं॥
सफल हुई कामना महा-मंगल हुआ।
किन्तु सताते नित्य विरह-संताप हैं॥54॥

आते ही पति-मूर्ति बनाना स्वकर से।
उसे सजाना पहनाना गजरे बना॥
पास बैठ उसको देखा करना सतत।
करते रहना बहु-भावों की व्यंजना॥55॥

हम लोगों को यह बतलाता नित्य था।
विरह विकलता से क्या है चित की दशा॥
कितनी पतिप्राणा हैं आप, तथैव है-
कैसा पति-आनन अवलोकन का नशा॥56॥

किन्तु यह समझ चित में रहती शान्ति थी।
अल्प-समय तक ही होगी यह यातना॥
क्योंकि रहा विश्वास प्रसव उपरान्त ही।
आपको अवध-अवनी देगी सान्त्वना॥57॥

किन्तु देखती हूँ यह, पुत्रवती बने।
हुआ आपको एक साल से कुछ अधिक॥
किन्तु अवध की दृष्टि न फिर पाई इधर।
और आपके स्वर में स्वर भर गया पिक॥58॥

कुलपति-आश्रम की विधि मुझको ज्ञात है।
गर्भवती-पति-रुचि के वह अधीन है॥
वह चाहे तो उसे बुला ले या न ले।
पर आश्रम का वास ही समीचीन है॥59॥

तपोभूमि में जिसका सब संस्कार हो।
आश्रम में ही जो शिक्षित, दीक्षित, बने॥
वह क्यों वैसा लोक-पूज्य होगा नहीं।
धरा पूत बनती है जैसा सुत जने॥60॥