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वैदेही वनवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / त्रयोदश सर्ग / पृष्ठ ५

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जब उसका दर्शन भी दुर्लभ हो गया।
जो जीवन का सम्बल अवलम्बन रहा॥
तो आवेग बनायें क्यों आकुल नहीं।
कैसे तो उद्वेग वेग जाये सहा॥81॥

भूल न पाईं वे बातें ममतामयी।
प्रीति-सुधा से सिक्त सर्वदा जो रहीं॥
स्मृति यदि है मेरे जीवन की सहचरी।
अहह आत्म-विस्मृति तो क्यों होगी नहीं॥82॥

बिना वारि के मीन बने वे आज हैं।
रहे जो नयन सदा स्नेह-रस में सने॥
भला न कैसे हो मेरी मति बावली।
क्यों प्रमत्त उन्मत्ता नहीं ममता बने॥83॥

रविकुल-रवि का आनन अवलोके बिना।
सरस शरद-सरसीरुह से वे क्यों खिलें॥
क्यों न ललकते आकुल हो तारे रहें।
क्यों न छलकते ऑंखों में ऑंसू मिलें॥84॥

कलपेगा आकुल होता ही रहेगा।
व्यथित बनेगा करेगा न मति की कही॥
निज-वल्लभ को भूल न पाएगा कभी।
हृदय हृदय है सदा रहेगा हृदय ही॥85॥

भूल सकेंगे कभी नहीं वे दिव्य-दिन।
भव्य-भावनायें जब दम भरती रहीं॥
कान रहे जब सुनते परम रुचिर-वचन।
ऑंखें जब छबि-सुधा-पान करती रहीं॥86॥

कभी समीर नहीं होगा गति से रहित।
होगा सलिल तरंगहीन न किसी समय।
कभी अभाव न होगा भाव-विभाव का।
कभी भावना-हीन नहीं होगा हृदय॥87॥

यह स्वाभाविकता है इससे बच सका-
कौन, सभी इस मोह-जाल में हैं फँसे॥
सारे अन्तस्तल में इसकी व्याप्ति है।
मन-प्रसून हैं बास से इसी के बसे॥88॥

विरह-जन्य मेरी पीड़ायें हैं प्रकृत।
किन्तु कभी कर्तव्य-हीन हूँगी न मैं॥
प्रिय-अभिलाषायें जो हैं प्राणेश की।
किसी काल में उनको भूलूँगी न मैं॥89॥

विरह-वेदनाओं में यदि है सबलता।
उनके शासक तो प्रियतम-आदेश हैं॥
जो हैं पावन परम न्याय-संगत उचित।
भव-हितकारक जो सच्चे उपदेश हैं॥90॥

महामना नृप-नीति-परायण दिव्य-धी।
धर्म-धुरंधर दृढ़-प्रतिज्ञ पति-देव हैं॥
फिर भी हैं करुणानिधान बहु दयामय।
लोकाराधन में विशेष अनुरक्त हैं॥91॥

आत्म-सुख-विसर्जन करके भी वे इसे।
करते आये हैं आजीवन करेंगे॥
बिना किये परवा दुस्तर-आवत्ता की।
आपदाब्धि-मज्जित-जन का दुख हरेंगे॥92॥

निज-कुटुम्ब का ही न, एक साम्राज्य का।
भार उन्हीं पर है, जो है गुरुतर महा॥
सारी उचित व्यवस्थाओं का सर्वदा।
अधिकारी महि में नृप-सत्तम ही रहा॥93॥

सुतों के सहित मेरे आश्रम-वास से।
देश, जाति, कुल का यदि होता है भला॥
अन्य व्यवस्था तो कैसे हो सकेगी।
सदा तुलेगी तुल्य न्याय-शीला-तुला॥94॥

रघुकुल-पुंगव की मैं हूँ सहधार्मिणी।
जो है उनका धर्म वही मम-धर्म है॥
भली-भाँति मम-उर उसको है जानता।
उनके प्रिय-सिध्दान्तों का जो मर्म है॥95॥

उनकी आज्ञा का पालन मम-ध्येय है।
उनका प्रिय-साधन ही मम-कर्तव्य है॥
उनका ही अनुगमन परम-प्रिय-कार्य है।
उनकी अभिरुचि मम-जीवन-मन्तव्य है॥96॥

विरह-वेदनायें हों किन्तु प्रसन्नता।
उनकी मुझे प्रसन्न बनाती रहेगी॥
मम-ममता देखे पति-प्रिय-साधन बदन।
सर्व यातनायें सुखपूर्वक सहेगी॥97॥

दोहा

नमन जनकजा ने किया, कह अन्तस्तल-हाल।
विदा हुईं कह शुभ-वचन आत्रेयी तत्काल॥98॥