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वैदेही वनवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / दशम सर्ग / पृष्ठ ४

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मैं हूँ अति-साधारण नारी,
कैसे वैसी मैं हूँगी।
तुम जैसी महती व्यापकता,
उदारता क्यों पाऊँगी॥61॥

फिर भी आजीवन मैं जनता-
का हित करती आयी हूँ।
अनहित औरों का अवलोके,
कब न बहुत घबराई हूँ॥62॥

जान बूझ कर कभी किसी का-
अहित नहीं मैं करती हूँ।
पाँव सर्वदा फूँक-फूँक कर,
धरती पर मैं धरती हूँ॥63॥

फिर क्यों लाखों कोसों पर रह,
तुम पति पास विलसती हो।
बिना विलोके दुख का आनन,
सर्वदैव तुम हँसती हो॥64॥

और किसलिए थोड़े अन्तर,
पर रह मैं उकताती हूँ।
बिना नवल-नीरद-तन देखे,
दृग से नीर बहाती हूँ॥65॥

ऐसी कौन न्यूनता मुझमें है,
जो विरह सताता है।
सिते! बता दो मुझे क्यों नहीं,
चन्द्र-वदन दिखलाता है॥66॥

किसी प्रिय सखी सदृश प्रिये तुम,
लिपटी हो मेरे तन से।
हो जीवन-संगिनी सुखित-
करती आती हो शिशुपन से॥67॥

हो प्रभाव-शालिनी कहाती,
प्रभा भरित दिखलाती हो।
तमस्विनी का भी तम हरकर,
उसको दिव्य बनाती हो॥68॥

मेरी तिमिरावृता न्यूनता,
का निरसन त्योंही कर दो।
अपनी पावन ज्योति कृपा-
दिखला, मम जीवन में भर दो॥69॥

कोमलता की मूर्ति सिते हो,
हितेरता कहलाओगी।
आशा है आयी हो तो तुम,
उर में सुधा बहाओगी॥70॥

अधिक क्या कहूँ अति-दुर्लभ है,
तुम जैसी ही हो जाना।
किन्तु चाहती हूँ जी से तव-
सद्भावों को अपनाना॥71॥

जो सहायता कर सकती हो,
करो, प्रार्थना है इतनी।
जिससे उतनी सुखी बन सकूँ,
पहले सुखित रही जितनी॥72॥

सेवा उसकी करूँ साथ रह,
जी से जिसकी दासी हूँ।
हूँ न स्वार्थरत, मैं पति के-
संयोग-सुधा की प्यासी हूँ॥73॥

दोहा

इतने में घंटा बजा उठा आरती-थाल।
द्रुत-गति से महिजा गईं मन्दिर में तत्काल॥74॥