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वैदेही वनवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / नवम सर्ग / पृष्ठ १

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नवम सर्ग : अवध धाम
छन्द : तिलोकी

था संध्या का समय भवन मणिगण दमक।
दीपक-पुंज समान जगमगा रहे थे॥
तोरण पर अति-मधुर-वाद्य था बज रहा।
सौधों में स्वर सरस-स्रोत से बहे थे॥1॥

काली चादर ओढ़ रही थी यामिनी।
जिसमें विपुल सुनहले बूटे थे बने॥
तिमिर-पुंज के अग्रदूत थे घूमते।
दिशा-वधूटी के व्याकुल-दृग सामने॥2॥

सुधा धवलिमा देख कालिमा की क्रिया।
रूप बदल कर रही मलिन-बदना बनी॥
उतर रही थी धीरे कर से समय के।
सब सौधों में तनी दिवासित चाँदनी॥3॥

तिमिर फैलता महि-मण्डल में देखकर।
मंजु-मशालें लगा व्योमतल बालने॥
ग्रीवा में श्रीमती प्रकृति-सुन्दरी के।
मणि-मालायें लगा ललक कर डालने॥4॥

हो कलरविता लसिता दीपक-अवलि से।
निज विकास से बहुतों को विकसित बना॥
विपुल-कुसुम-कुल की कलिकाओं को खिला।
हुई निशा मुख द्वारा रजनी-व्यंजना॥5॥

इसी समय अपने प्रिय शयनागार में।
सकल भुवन अभिराम राम आसीन थे॥
देख रहे थे अनुज-पंथ उत्कंठ हो।
जनक-लली लोकोत्तरता में लीन थे॥6॥

तोरण पर का वाद्य बन्द हो चुका था।
किन्तु एक वीणा थी अब भी झंकृता॥
पिला-पिला कर सुधा पिपासित-कान को॥
मधुर-कंठ-स्वर से मिल वह थी गुंजिता॥7॥

उसकी स्वर लहरी थी उर को वेधिता।
नयन से गिराती जल उसकी तान थी॥
एक गायिका करुण-भाव की मूर्ति बन।
आहें भर-भर कर गाती यह गान थी॥8॥

गान

आकुल ऑंखें तरस रही हैं।
बिना बिलोके मुख-मयंक-छवि पल-पल ऑंसू बरस रही हैं॥
दुख दूना होता जाता है सूना घर धर-धर खाता है।
ऊब-ऊब उठती हूँ मेरा जी रह-रह कर घबराता है।
दिन भर आहें भरती हँ मैं तारे गिन-गिन रात बिताती।
आ अन्तस्तल मध्य न जानें कहाँ की उदासी है छाती॥
शुक ने आज नहीं मुँह खोला नहीं नाचता दिखलाता है।
मैना भी है पड़ी मोह में उसके दृग से जल जाता है॥
देवि! आप कब तक आएँगी ऑंखें हैं दर्शन की प्यासी।
थाम कलेजा कलप रही है पड़ी व्यथा-वारिधि में दासी॥9॥

तिलोकी

रघुकुल पुंगव ने पूरा गाना सुना।
धीर धुरंधर करुणा-वरुणालय बने॥
इसी समय कर पूजित-पग की वन्दना।
खड़े दिखाई दिये प्रिय-अनुज सामने॥10॥

कुछ आकुल कुछ तुष्ट कुछ अचिन्तित दशा।
देख सुमित्रा-सुत की प्रभुवर ने कहा॥
तात! तुम्हें उत्फुल्ल नहीं हूँ देखता।
क्यों मुझको अवलोक दृगों से जल बहा॥11॥

आश्रम में तो सकुशल पहुँच गयी प्रिया?
वहाँ समादर स्वागत तो समुचित हुआ॥
हैं मुनिराज प्रसन्न? शान्त है तपोवन।
नहीं कहीं पर तो है कुछ अनुचित हुआ?॥12॥

सविनय कहा सुमित्रा के प्रिय-सुअन ने।
मुनि हैं मंगल-मूर्ति, तपोवन पूततम॥
आर्य्या हैं स्वयमेव दिव्य देवियों सी।
आश्रम है सात्तिवक-निवास सुरलोक सम॥13॥

वह है सद्व्यवहार-धाम सत्कृति-सदन।
वहाँ कुशल है 'कार्य-कुशलता' सीखती॥
भले-भाव सब फूले फले मिले वहाँ।
भली-भावना-भूति भरी है दीखती॥14॥

किन्तु एक अति-पति-परायणा की दशा।
उनकी मुख-मुद्रा उनकी मार्मिक-व्यथा॥
उनकी गोपन-भाव-भरित दुख-व्यंजना।
उनकी बहु-संयमन प्रयत्नों की कथा॥15॥

मुझे बनाती रहती है अब भी व्यथित।
उसकी याद सताती है अब भी मुझे।
उन बातों को सोच न कब छलके नयन।
आश्वासन देतीं कह जिन्हें कभी मुझे॥16॥

तपोभूमि का पूत-वायुमण्डल मिले।
मुनि-पुंगव के सात्तिवक-पुण्य-प्रभाव से॥
शान्ति बहुत कुछ आर्य्या को है मिल रही।
तपस्विनी-गण सहृदयता सद्भाव से॥17॥

किन्तु पति-परायणता की जो मूर्ति है।
पति ही जिसके जीवन का सर्वस्व है॥
बिना सलिल की सफरी वह होगी न क्यों।
पति-वियोग में जिसका विफल निजस्व है॥18॥

सिय-प्रदत्ता-सन्देश सुना सौमित्रा ने।
कहा, भरी है इसमें कितनी वेदना॥
बात आपकी चले न कब दिल हिल गया।
कब न पति-रता ऑंखों से ऑंसू छना॥19॥

उनको है कर्तव्य ज्ञान वे आपकी।
कर्म-परायण हैं सच्ची सहधार्मिणी॥
लोक-लाभ-मूलक प्रभु के संकल्प पर।
उत्सर्गी कृत होकर हैं कृति-ऋण-ऋणी॥20॥