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वैदेही वनवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / षोडश सर्ग / पृष्ठ २

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तिलोकी

जब कुश का बहु-गौरव-मय गाना रुका।
वर-मृदंग-वादन तब वे करने लगे॥
तंत्री-स्वर में निज हृतंत्री को मिला।
यह पद गाकर प्रेम रंग में लव रँगे॥15॥

पद

जय जय रघुकुल-कमल-दिवाकर।
मर्यादा-पुरुषोत्ताम सद्गुण-रत्न-निचय-रत्नाकर॥1॥

मिथिला में जब भृगुकुल-पुंगव ने कटु बात सुनाई।
तब कोमल वचनावलि गरिमा किसने थी दिखलाई॥2॥

बहु-विवाह को कह अवैधा बन बंधुवर्ग-हितकारक।
कौन एक पत्नीव्रत का है वसुधा-मध्य-प्रचारक॥3॥

पिता के वचन-पण के प्रतिपालन का बन अनुरागी।
किसने हो उत्फुल्ल देव-दुर्लभ-विभूति थी त्यागी॥4॥

कुपित-लखन ने जनक कथन को जब अनुचित बतलाया।
धीर-धुरंधर बन तब किसने उनको धर्य बँधाया॥5॥

कुल को अवलोकन कर बन के बन्धुवर्ग विश्वासी।
गृह की अनबन से बचने को कौन बना वनवासी॥6॥

वन की विविध असुविधाओं को भूल विचार भलाई।
भरत-भावनाओं की किसने की थी भूरि बड़ाई॥7॥

बानर को नर बना दिखाई किसने नरता-न्यारी।
पशुता में मानवता स्थापन नीति किसे है प्यारी॥8॥

निरवलंब अवलंब बने सुग्रीव की बला टाली।
बिला गया किसके बल से बालिशबाली-बलशाली॥9॥

दण्डनीय ही दण्डित हो क्यों दण्डित हो सुत-जाया।
अंगद को युवराज बना किसने यह पाठ पढ़ाया॥10॥

किसकी कृति से शिला सलिल पर उतराती दिखलाई।
सिंधु बाँध संगठन-शक्ति-गरिमा किसने बतलाई॥11॥

अहितू को भी दूत भेज हित-नीति गयी समझाई।
होते क्षमता, क्षमा-शीलता किसने इतनी पाई॥12॥

किसने रंक-विभीषण को दिखला शुचि-नीति प्रणाली।
राज्य-सहित सुर-पुर-विभूति-भूषित-लंका दे डाली॥13॥

किसने उसे बिठा पावक में जो थी शुचिता ढाली।
तत्कालिक पावन-प्रतीति की मर्यादा प्रतिपाली॥14॥

अवध पहुँच पहले जा कैकेयी को शीश नवाया।
ऐसा उज्ज्वल कलुष-रहित-उर किसका कहाँ दिखाया॥15॥

मिले राज जो प्रजारंजिनी-नीति नव-लता, फूली।
उस पर प्रजा-प्रतीति-प्रीति प्रिय-रुचि-भ्रमरी है भूली॥16॥

घर घर कामधेनु है सब पर सुर-तरु की है छाया।
सरस्वती वरदा है, किस पर है न रमा की माया॥17॥

सकल-जनपदों में जन पद है निज पद का अधिकारी।
विलसित है संयम सुमनों से स्वतंत्रता-फुलवारी॥18॥

हुए सत्य-व्यवहार-रुचिरतर-तरुवर-चय के सफलित।
नगर-नगर नागरिक-स्वत्व पाकर है परम प्रफुल्लित॥19॥

ग्राम-ग्राम ने सीख लिया है उन बीजों का बोना।
जिससे महि बन शस्य-श्यामला उगल रही है सोना॥20॥

चाहे पुरवासी होवे या होवे ग्राम-निवासी।
सबकी रुचि-चातकी है सुकृति-स्वाति-बूँद की प्यासी॥21॥

जिससे भू थी कम्पित रहती दिग्गज थे थर्राते।
सकल-लोक का जो कंटक था जिससे यम घबराते॥22॥

उसकी कुत्सित-नीति कालिमामयी-यामिनी बीते।
लोक-चकोर सुनीति-रजनि पा शान्ति-सुधा हैं पीते॥23॥

हैं सुर-वृन्द सुखित मुनिजन हैं मुदित मिटे दानवता।
प्रजा-पुंज है पुलकित देखे मानवेन्द्र-मानवता॥24॥

होती है न अकाल-मृत्यु अनुकूल-काल है रहता।
सकल-सुखों का स्रोत सर्वदा है घर-घर में बहता॥25॥

किसने जन-जन के उर-भू में कीर्ति बेलि यों बोई।
सकल-लोक-अभिराम राम हैं है न राम सा कोई॥26॥16॥

तिलोकी

लव जब अपने अनुपम-पद को गा चुके।
उसी समय मुकुटालंकृत कमनीय तन॥
एक पुरुष ने मन्दिर में आ प्रेम से।
किया जनकजा के पावन-पद का यजन॥17॥

उनका अभिनन्दन कर परमादर सहित।
जनक-नन्दिनी ने यह पुत्रों से कहा॥
करो वन्दना इनकी ये पितृव्य हैं।
यह सुन लव-कुश दोनों सुखित हुए महा॥18॥

उठ दोनों ने की उनकी पद-वन्दना।
यथास्थान फिर जा बैठे दोनों सुअन॥
उनकी आकृति, प्रकृति, कान्ति, कमनीयता।
अवलोकन कर हुए बहु-मुदित रिपु-दमन॥19॥

और कहा अब आर्ये पूरी शान्ति है।
प्रजा-पुंज है सुखित न हलचल है कहीं॥
सारे जनपद मुखरित हैं कल-कीर्ति से।
चिन्तित-चित की चिन्तायें जाती रहीं॥20॥