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वैदेही वनवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / सप्तदश सर्ग / पृष्ठ २

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बारह बरस व्यतीत हुए उनके यहीं।
किन्तु कभी आकुलता होती थी नहीं॥
कभी म्लानता मुखड़े पर आती न थी।
जब अवलोका विकसित-बदना वे रहीं॥21॥

और सहारा क्या था फल, दल के सिवा।
था जंगल का वास वस्तु होती गिनी॥
कभी कमी का नाम नहीं मुँह ने लिया।
बात असुविधा की कब कानों ने सुनी॥22॥

राई-भर भी है न बुराई दीखती।
रग-रग में है भूरि-भलाई ही भरी॥
उदारता है उनकी जीवन संगिनी।
पर दुख-कातरता है प्यारी-सहचरी॥23॥

बड़े-बड़े दुख के अवसर आये तदपि।
कभी नहीं दिखलाई वे मुझको दुखी॥
मेरा मुख-अवलोके दिन था बीतता।
मेरे सुख से ही वे रहती थीं सुखी॥24॥

रूखी सूखी बात कभी कहती न थीं।
तरलतम-हृदय में थी ऐसी तरलता॥
असरल-पथ भी बन जाते थे सरल-तम।
सरल-चित्त की अवलोकन कर सरलता॥25॥

जब सौमित्र-बदन कुम्हलाया देखतीं।
मधुर-मधुर बातें कह समझातीं उन्हें॥
जो कुटीर में होता वे लेकर उसे।
पास बैठकर प्यार से खिलातीं उन्हें॥26॥

कभी उर्मिला के वियोग की सुधि हुए।
ऑंसू उनके दृग का रुकता ही न था॥
कभी बनाती रहती थी व्याकुल उन्हें।
मम-माता की विविध-व्यथाओं की कथा॥27॥

ऐसी परम-सदय-हृदया भव-हित रता।
सत्य-प्रेमिका गौरव-मूर्ति गरीयसी॥
बहु-वत्सर से है वियोग-विधुरा बनी।
विधि की विधि ही है भव-मध्य-बलीयसी॥28॥

जिसके भ्रू ने कभी न पाई बंकता।
जिसके दृग में मिली न रिस की लालिमा॥
जिसके मधुर-वचन न कभी अमधुर बने।
जिसकी कृति-सितता में लगी न कालिमा॥29॥

उचित उसे कह बन सच्ची-सहधार्मिणी।
जिसने वन का वास मुदित-मन से लिया॥
शिरोधार्य कह अति-तत्परता के सहित।
जिसने मेरी आज्ञा का पालन किया॥30॥

मेरा मुख जिसके सुख का आधार था।
मेरी ही छाया जो जाती है कही॥
जिसका मैं इस भूतल में सर्वस्व था।
जो मुझ पर उत्सर्गी-कृत-जीवन रही॥31॥

यदि वह मेरे द्वारा बहु-व्यथिता बनी।
विरह-उदधि-उत्ताल-तरंगों में बही॥
तो क्यों होगी नहीं मर्म-पीड़ा मुझे।
तो क्यों होगा मेरा उर शतधा नहीं॥32॥

एक दो नहीं द्वादश-वत्सर हो गये।
किसने इतनी भव-तप की ऑंचें सहीं॥
कब ऐसा व्यवहार कहीं होगा हुआ।
कभी घटी होगी ऐसी घटना नहीं॥33॥

धीर-धुरंधर ने फिर धीरज धार सँभल।
अपने अति-आकुल होते चित से कहा॥
स्वाभाविकता स्वाभाविकता है अत:।
उसके प्रबल-वेग को कब किसने सहा॥34॥

किन्तु अधिक होना अधीर वांछित नहीं।
जब कि लोक-हित हैं लोचन के सामने॥
प्रिया को बनाया है वर भव-दृष्टि में।
लोकहित-परायण उनके गुण ग्राम ने॥35॥

आज राज्य में जैसी सच्ची-शान्ति है।
जैसी सुखिता पुलक-पूरिता है प्रजा॥
जिस प्रकार ग्रामों, नगरों, जनपदों में।
कलित-कीर्ति की है उड़ रही ललित ध्वजा॥36॥

वह अपूर्व है, है बुद-वृन्द-प्रशंसिता।
है जनता-अनुरक्ति-भक्ति उसमें भरी॥
पुण्य-कीत्तान के पावन-पाथोधि में।
डूब चुकी है जन-श्रुति की जर्जर तरी॥37॥

बात लोक-अपवाद की किसी ने कभी।
जो कह दी थी भ्रम प्रमादवश में पडे॥
उसकी याद हुए भी अवसर पर किसी।
अब हो जाते हैं उसके रोयें खड़े॥38॥

बिना रक्त का पात प्रजा-पीड़न किये।
बिना कटे कितने ही लोगों का गला॥
साम-नीति अवलम्बन कर संयत बने।
लोकाराधन-बल से टली प्रबल-बला॥39॥

इसका श्रेय अधिकतर है महि-सुता को।
उन्हीं की सुकृति-बल से है बाधा टली॥
उन्हीं के अलौकिक त्यागों के अंक में।
लोक-हितकरी-शान्ति-बालिका है पली॥40॥