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वैदेही वनवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / सप्तदश सर्ग / पृष्ठ ४

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वास्तव में वे पतिप्राणा हैं मैं उन्हें।
चन्द्रवदन की चकोरिका हूँ जानती॥
हैं उनके सर्वस्व आप ही मैं उन्हें।
प्रेम के सलिल की सफरी हूँ मानती॥61॥

रोमांचित-तन हुआ कलेजा हिल गया।
दृग के सम्मुख उड़ी व्यथाओं की ध्वजा॥
जब मेरे विचलित कानों ने यह सुना।
हैं द्वादश-वत्सर-वियोगिनी जनकजा॥62॥

विधि ने उन्हें बनाया है अति-सुन्दरी।
उनका अनुपम-लोकोत्तर-सौन्दर्य है॥
पर उसके कारण जो उत्पीड़न हुआ।
वह हृत्कम्पित-कर है परम-कदर्य्य है॥63॥

जो साम्राज्ञी हैं जो हैं नृप-नन्दिनी।
रत्न-खचित-कंचन के जिनके हैं सदन॥
उनका न्यून नहीं बहु बरसों के लिए।
बार-बार बनता है वास-स्थान वन॥64॥

जो सर्वोत्तम-गुण-गौरव की मूर्ति हैं।
वसुधा-वांछित जिनका पूत-प्रयोग है॥
एक दो नहीं बारह-बारह बरस का।
उनका हृदय-विदारक वैध-वियोग है॥65॥

विधि-विधान में क्या विधि है क्या अविधि है।
विबुध-वृन्द भी इसे बता पाते नहीं॥
सही गयी ऐसी घटनायें, पर उन्हें।
थाम कलेजा सहनेवालों ने सहीं॥66॥

हरण अचानक जब पतिप्राणा का हुआ।
उनके प्रतिपालित-खग-मृग मुझको मिले॥
पर वे मेरी ओर ताकते तक न थे।
वे कुछ ऐसे जनक-सुता से थे हिले॥67॥

शुक ने तो दो दिन तक खाया ही नहीं।
करुण-स्वरों से रही बिलखती शारिका॥
मातृहीन-मृग-शावक तृण चरता न था।
यद्यपि मैं थी स्वयं बनी परिचारिका॥68॥

कभी दिखाते वे ऐसे कुछ भाव थे।
जिनसे उर में उठती दुख की आग बल॥
उनकी खग-मृग तक की प्यारी प्रीति को।
बतलाते थे मृग-शावक के दृग-सजल॥69॥

द्रवण-शीलता जैसी थी उनमें भरी।
वैसा ही अन्तस्तल दयानिधान था॥
अण्डज, पिण्डज जीवों की तो बात क्या।
म्लान-विटप देखे, मुख बनता म्लान था॥70॥

दूब कुपुटते भी न उन्हें देखा कभी।
लता-और तृण से भी उनको प्यार था॥
प्रेम-परायणता की वे हैं पुत्तली।
स्नेह-सिक्त उनका अद्भुत-संसार था॥71॥

आह! वही क्यों प्रेम से प्रवंचित हुई।
क्यों वियोग-वारिधि-आवत्तों में पड़ी॥
जो सतीत्व की लोक-वन्दिता-मूर्ति है।
उसके सम्मुख क्यों आयी ऐसी घड़ी॥72॥

यह कैसी अकृपा? क्या इसका मर्म है।
परम-व्यथित-हृदया मैं क्यों समझूँ इसे॥
कैसे इतना उतर गयी वह चित्त से।
हृदय-वल्लभा आप समझते थे जिसे॥73॥

आत्रेयी कहती थीं बारह बरस में।
नहीं गये थे आप एक दिन भी वहाँ॥
कहाँ वह अलौकिक पल-पल का सम्मिलन।
और लोक-कम्पितकर यह अमिलन कहाँ॥74॥

कभी जनकजा जीती रह सकती नहीं।
जो न सम्मिलन-आशा होती सामने॥
क्या न कृपा अब भी होवेगी आपकी।
लोगों को क्यों पडें क़लेजे थामने॥75॥

संयत हो यह कहा लोक-अभिराम ने।
देवि! आप हैं जनकसुता-प्रिय-सहचरी॥
हैं विदुषी हैं कोमल-हृदया आपके-
अन्तस्तल में उनकी ममता है भरी॥76॥

उपालम्भ है उचित और मुझको स्वयं।
इन बातों की थोड़ी पीड़ा है नहीं॥
किन्तु धर्म की गति है सूक्ष्म कही गई।
जहाँ सुकृति है शान्ति विलसती है वहीं॥77॥

लोकाराधन राजनीति-सर्वस्व है।
हैं परार्थ, परमार्थ, पंथ भी अति-गहन॥
पर यदि ए कर्तव्य और सध्दर्म हैं।
सहन-शक्ति तो क्यों न करे संकट सहन॥78॥

कुलपति-आश्रम-वास जनक-नन्दिनी का।
हम दोनों के सद्विचार का मर्म है॥
वेद-विहित बुध-वृन्द-समर्थित पूत-तम।
भवहित-मंगल-मूलक वांछित-कर्म है॥79॥

कुछ लोगों का यह विचार है आत्म-सुख।
है प्रधान है वसुधा में वांछित वही॥
तजे विफलता-पथ बाधाओं से बचे।
मनुज को सफलता दे देती है मही॥80॥

वे कहते हैं नरक, स्वर्ग, अपवर्ग की।
जन्मान्तर या लोकान्तर की कल्पना॥
है परोक्ष की बात हुई प्रत्यक्ष कब।
है परार्थ भी अत: व्यर्थ की जल्पना॥81॥

यह विचार है स्वार्थ-भरित भ्रम-आकलित।
कर इसका अनुसरण ध्वंस होती धरा॥
है परार्थ, परमार्थ, बाद ही पुण्यतम।
वह है भवहित के सद्भाव से भरा॥82॥

स्वार्थ वह तिमिर है जिसमें रहकर मनुज।
है टटोलता रहता अपनी भूति को॥
है परार्थ परमार्थ दिव्य वह ओप जो।
उद्भासित करता है विश्व-विभूति को॥83॥

आत्म-सुख-निरत आत्म-सुखों में मग्न हो।
अवलोकन करता रहता निज-ओक है॥
कहलाकर कुल का, स्वजाति का, देश का।
लोक-सुख-निरत बनता भव आलोक है॥84॥

इसी पंथ की पथिका हैं जनकांगजा॥
उनका आश्रम का निवास सफलित हुआ॥
मिले अलौकिक-लाल हो गया लोक-हित।
कलुषित-जन-अपवाद काल-कवलित हुआ॥85॥

अश्वमेध का अनुष्ठान हो चुका है।
नीति की कलिततम कलिकायें खिलेंगी॥
कृपा दिखा उत्सव में आयें आप भी।
वहाँ जनक-नन्दिनी आपको मिलेंगी॥86॥

दोहा

चले गये रघुकुल तिलक रहा पुलकित-कर बात।
वनदेवी अविकच-बदन बना विकच-जलजात॥87॥